शिक्षा का अनुप्रयोग - मो. जाहिद हुसैन - Teachers of Bihar

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Monday 12 August 2024

शिक्षा का अनुप्रयोग - मो. जाहिद हुसैन



बिना शिक्षा के मनुष्य पशु समान है लेकिन बिना नैतिकता के शिक्षा बेकार ही नहीं बल्कि घातक भी है। अब सोचिए कि जो आतंकवादी होते हैं, उनका भी दिमाग़ एक वैज्ञानिक से कम नहीं होता, लेकिन उनका कार्य समाज के लिए ख़तरनाक होता है। वर्ल्ड ट्रेड आर्गेनाइजेशन को उड़ाने वाले को भी यह प्रशिक्षण दिया गया होगा कि इस टाॅवर का निर्माण किन-किन चीजों से हुआ है, तभी तो उसका जहाज टकराते ही वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन रेत की भीत की तरह भरभरा कर गिर गया। शिक्षा प्राप्त कर लेने भर से नहीं होता बल्कि उसके अंदर संस्कार, संस्कृति, समाज की समझ, सबल नैतिक पक्ष, मानवता के प्रति संवेदनशीलता और शिक्षा का सदुपयोग एवं विषम परिस्थितियों से जूझने की कला, स्व विवेक तथा अपने देश-समाज के प्रति निष्ठा आदि हो। आज न तो मुक्ति पाने वाली विद्या की ज़रूरत है और न ही ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जीने की चाहत वाली शिक्षा। लेकिन आजकल अधिकांश लोगों की शिक्षा का उद्देश्य धनोपार्जन और तथाकथित ठाठ से जीवन जीना है। एक शिक्षित व्यक्ति को हमेशा संतुलित रहने की ज़रूरत है,उनमें छल- कपट, आडंबर और अंधविश्वास से ऊपर और ग़लत धारणाओं या मिथकों को तोड़ने की शक्ति होनी चाहिए। आजकल पढ़े-लिखे लोगों को भी दिमाग़ी संतुलन बनाए रखना मुश्किल होता है, वे बात-बात पर गुस्से में आ जाते हैं। महान बॉक्सर मोहम्मद अली किले से जब एक इंटरव्यू में पूछा गया कि आपका दामाद कैसा होना चाहिए तो उन्होंने यह जवाब दिया कि मेरा दामाद दिमाग से संतुलित होना चाहिए। विश्व के महान शिक्षक महात्मा बुद्ध का शील दर्शन बहुत ही मायने रखता है, उसे जीवन में उतारने की ज़रूरत है। लोग उन्हें भगवान कहते हैं लेकिन उन्होंने अपने को कभी भगवान नहीं कहा। वे एक सभ्य पुरुष थे। उन्होंने तो यह कहा कि मैं कहूँ, मत मानो। गुरु कहे मत मानो। तुम्हें जो सही लगे वही मानो। लोग कहते हैं न! इंसान का ज़मीर मर चुका है, सिर्फ़ जिस्म ज़िंदा है। इंसान की अंतरात्मा या अंतःकरण की आवाज़ जब प्रबल होती है तो उसकी जुबान से निकली हुई हर बात और उसके लिए गए फैसले सही होते हैं।

      अक्सर देखा जाता है कि एक निरक्षर व्यक्ति भी शिक्षित व्यक्ति से काफी समझदारी भरी बात करते हैं। उनके व्यवहार, बुद्धि और कौशल विकसित होते हैं। आज लोगों के पास डिग्रियों का अंबार तो होता है पर उनके पास सामाजिकता (Socialisation) की कमी होती है। राजनीतिक ज्ञान भी अशिक्षितों के पास ज़्यादा पाया जाता है। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि डिग्रियाँ लेना बेकार है बल्कि उनके पास ज्ञान, व्यवहार और कौशल भी उतना ही होना चाहिए।

   डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, ब्युरोक्रेट, राजनयिक और राजनेता तो लाखों की संख्या में बन रहे हैं लेकिन ये तो बताइए कि इंसान कितने बन रहे हैं? इन्ही बातों में समाज की सभी समस्याओं का हल है। मिर्जा ग़ालिब ने ठीक ही कहा है:-

बस के हर काम का दुश्वार है आसां होना

आदमी को भी मुअस्सर नहीं इंसान होना।

    आदमी तो सभी हैं लेकिन इंसान सभी नहीं होते क्योंकि इंसान के अंदर जो गुण होते हैं, वे उन्हें संसार के सभी प्राणियों से श्रेष्ठ बनाते हैं। कहा जाता है कि पढ़े-लिखे लोग किसी बात को नाप-तौल कर बोलते हैं। यदि कोई इंसान नाप-तौल कर बोलता है तो समझ लीजिए कि वह जरूर झूठ बोलेगा लेकिन जो इंसान अनायास कुछ बोलता है, वह सच होता है।

सीधे-साधे गाँव-ग्राम के लोग, जिन्हें लोग गँवार कहते हैं; हालाँकि गँवार का मतलब ही होता है- गाँव-गँवई के लोग। वे जो बोलते हैं बिना लाग लपेट के बोलते हैं, जिसमें सच्चाई झलकती है। उन्होंने जिंदगी पढ़ी है और पढ़े-लिखे लोग किताब। प्रैक्टिकल कौन है? सैद्धांतिक कौन है? फ़ैसला आपके हाथ में है। एक शिक्षित व्यक्ति को अहंकारी नहीं होना चाहिए। उसके हृदय से निर्मल धारा बहनी चाहिए। उनका मन-मस्तिष्क निर्विकार हो, तभी तो उस व्यक्ति की आभा सामने वाले को प्रभावित करेगी। तभी तो वे अशरफ़ुल मख़लुक़ात (सर्वश्रेष्ठ प्राणी) कहलाने के लायक़ बनेगें। पढ़े-लिखे लोग ही अपने बंगले के गेट पर कुत्ते से सावधान (Beware of dog) लिखते हैं। अपने को ख़ास समझने वाले ये लोग आम लोगों को गले नहीं लगाते। यहाँ तक कि वे अपने परिजनों को भी पैरेटो के 'इलीट क्लास' और जे . एस. मिल की 'पावर एलिट' का दर्शन कराते हैं। वे कुछ ऐसा करते हैं जिससे इन ख़ास लोगों का घर कांजी हाउस बन चुका होता है, जहांँ कुत्ते-बिल्लियों को तो सोफे पर बैठाया जाता है और उन्हें क़ीमती बिस्किट खिलाया जाता है लेकिन इंसान को पास बैठाने में उन्हें हर्ज है।   

    एक बड़ा दिलचस्प वाक़्या है। मैं दिल्ली में एक बड़े मॉल में घूम रहा था। कुछ-कुछ चीज़ों को चुज़ कर उसे बास्केट में डालता जा रहा था। मुझे बिस्किट का एक बड़ा पैकेट भी लेना था। आगे की तरफ लगे रैक से मैं बिस्किट लेने ही वाला था कि ग्लास पर लिखा दिखाई पड़ा " बिस्किट्स फॉर डॉग्स"। बिस्किट्स के दाम इतने थे कि इंसानों के बिस्किट्स उतने में 10 पैकेट हो जाएँगे। पशु प्रेमी या कोई पर्यावरणविद् नहीं हैं ये लोग बल्कि यह उनका स्टेट सिंबल है। ऐसी शिक्षा-धन किस काम का? जिसमें सामाजिकता न हो। सच पूछिए तो वे शिक्षित होकर भी अक़्ल से पैदल हैं। बिना समझ के प्रज्ञा ? बिना सामाजिकता के शिक्षा बेकार है। शिक्षा एक जीने की कला है, यह सलीक़ा ( किसी कार्य को किस तरह किया जाए?) सिखाती है।

    लाॅक साहब ने कहा है कि जिस तरह पौधे की देखभाल कोड़ाई, रोपाई, निराई और कीटनाशकों का छिड़काव आदि से होती है, उसी प्रकार मनुष्य का विकास शिक्षा से होता है ( Plants are developed by cultivation and men by education) यूँ तो महात्मा गाँधी की शिक्षा की परिभाषा उत्तम है।

गाँधीजी ने कहा, "शिक्षा से मेरा मतलब है कि बच्चे और मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा से सर्वश्रेष्ठ को बाहर निकालना। लेकिन स्वामी विवेकानंद का शिक्षा के बारे में विचार भी उत्तम है। स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाएँ ज्ञान का खजाना हैं। वे आत्मविश्वास, ज्ञान की खोज, आत्म-सुधार, दूसरों की सेवा और सार्वभौमिक भाईचारे के महत्व पर जोर देते हैं। उनका आदर्श वाक्य, "उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए," आज भी दुनिया भर में लाखों लोगों को प्रेरित करता है। शिक्षा पर स्वामी विवेकानन्द के विचारों को उनके अपने शब्दों में कहा जा सकता है, "हम ऐसी शिक्षा चाहते हैं जिससे चरित्र का निर्माण हो, मन की शक्ति बढ़े, बुद्धि का विस्तार हो और व्यक्ति अपने पैरों पर खड़ा हो।" कृष्णमूर्ति के अनुसार, शिक्षा केवल "एक तकनीक, एक कौशल प्राप्त करना नहीं है, बल्कि एक इंसान को महान कला के साथ जीने के लिए शिक्षित करना है । इसका मतलब केवल तकनीकी ज्ञान नहीं है बल्कि मानस का विशाल असीम क्षेत्र भी है"।

    इंसान पढ़ लिख जाए और उनमें सिविक सेंस न हो तो वैसा पढ़ना क्या? गुरु द्रोणाचार्य पांडवों को जब शिक्षा दे रहे थे तो युधिष्ठिर को छोड़कर सभी सबक़ अपना जल्दी ही याद कर लेते, और वे गुरु द्रोणाचार्य से कहते कि हमें सबक़ याद हो गया। युधिष्ठिर से जब पूछा गया कि तुमने क्यों नहीं सबक़ अभी तक याद किया। तो उन्होंने कहा कि मैं अभी झूठ बोलना छोड़ा नहीं हूँ तो कैसे कहूँ कि झूठ बोलना नहीं चाहिए। मैं यदि दयावान बन जाऊँगा तभी तो कहूँगा कि लोगों पर दया करनी चाहिए। बच्चों को पढ़ाया गया कि पानी को बचाना चाहिए, यूँ ही पानी बर्बाद नहीं करना चाहिए। लेकिन बच्चे हैं कि फिजूल में पानी बर्बाद कर रहे हैं। तो बताइए कि बच्चों ने सीखा क्या। बच्चा जल संरक्षण के प्रति संवेदनशील तब माना जाएगा, जब बच्चा जल संरक्षण करने लगेगा। अक्सर देखा जाता है कि लोग नल खुला छोड़ देते हैं। यदि बच्चा उसे बंद कर देता है तो समझा जाएगा कि वह जल संरक्षण के प्रति संवेदनशील है। मुफ्त की मिली बिजली का भी मोल है। अक्सर स्ट्रीट लाइट दिन में भी जलते हुए दिखाई देते हैं। नालंदा के एक जिला पदाधिकारी थे जो नगर आयुक्त के पद पर पहले थे, फिर उन्हें जिला संभालने को दिया गया। कई बार ऐसा देखा गया कि वे जब गाड़ी से जाते रहते तो कोई लाइट जब दिन में जलता रहता तो वे गाड़ी रुकवा कर उतरकर स्वयं उसे स्विच ऑफ कर देते। शायद वे एक संदेश देना चाहते थे कि बिजली इस तरह से बचायी जाती है। 

    पढ़ा आपने लेकिन सीखा कुछ नहीं। पढ़ा आपने कि यह करना चाहिए। वह नहीं करना चाहिए, लेकिन करते वही हैं जो मना किया गया है। जो करने के लिए कहा गया वे उसे करते नहीं हैं। यह कैसी शिक्षा है आपकी? मतलब कि आपने सिर्फ पढ़ा है, सीखा नहीं है। अगर आप सीखे होते तो जरूर अपनी जिंदगी में उसे किए होते। दर्शन शिक्षा का सिद्धांत है और शिक्षा दर्शन का कार्यात्मक रूप ( Dynamic form) है। अतः इंसान जो सीखे वही करे, नहीं तो वही होगा कि दूसरे के भरोसे वह हाथ पर हाथ धर कर बैठे रहेगा। यदि किसी बच्चा को गणित में आधा किलो और डेढ़ किलो का ज्ञान दिया जाए तो उसे दैनिक जीवन में भी दूध या सब्जी खरीदते समय उसका अनुप्रयोग करना चाहिए। यही जीवन का उद्देश्य है। शिक्षा इंसान को व्यवहार कुशल बनती है। शिक्षा हर तरह के परिस्थितियों में ढल जाने की कला प्रदान करती है।


मो. जाहिद हुसैन 

प्रधानाध्यापक, उत्क्रमित मध्य विद्यालय मलहविगहा चंडी, नालंदा

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