कर्मयोगी श्री कृष्ण की सोलह कलाएँ - सुरेश कुमार गौरव - Teachers of Bihar

Recent

Monday 26 August 2024

कर्मयोगी श्री कृष्ण की सोलह कलाएँ - सुरेश कुमार गौरव


श्रीकृष्ण को कर्मयोगी सहित सोलह कलावतार से युक्त गुणों वाला भी कहा जाता है। आज इनकी कला के सभी गुणों के बारे में जानते हैं।


1. श्री कला- इसका तात्पर्य पूंजी के साथ धन, वचन और कर्म से धनी होना और जरुरतमंदों को मदद करना। श्री कृष्ण-सुदामा के प्रेम से इस बात को समझा जा सकता है।


2. भू-कला- द्वारिकाधीश ने द्वारिकापुरी बनाई। इस भू-भाग पर रहने वाले लोग इनकी हर बात मानते व उनकी आज्ञा का अक्षरशः पालन करते थे। इसे ही भू स्थापित कला कहते हैं।


3. कीर्ति कला- श्रीकृष्ण का मान-सम्मान और यश चारों दिशाओं में था। कीर्ति, लोकप्रियता, विश्वसनीयता और लोक कल्याणकारी भावना से ही आती है।


4. इला कला- यह शब्दों और वाणी से सम्मोहित करने की कला है। क्रोधित व्यक्ति भी उनकी बातें सुनकर शांत हो जाते थे। सही-ग़लत का भ्रम भी दूर हो जाता था।

5. लीला कला- वे खेल, नाटक जानकर भी अनजान रहते व चमत्कृत कर देने वाली कलाओं में माहिर थे। बाल लीला से इह लीला तक के उनके कर्मों से इस बात को समझा जा सकता है।


6. कांति कला- वे मुकुट, मोर के पंख व पीले वस्त्र को धारण करते थे। इससे उनके मन चित्त से सब आकर्षित होते थे और चेहरे पर आकर्षण का नाम ही है कांति।


7. विद्या कला- वे ज्ञान, शिक्षा और दक्षता के साथ साथ पूर्ण कौशल युक्त थे। उन्होंने उज्जैन के संदीपनी आश्रम में कुल 64 कलाएँ सीखी थीं।


8. विमला कला- यानी शुद्ध, सरल और छल कपट से रहित व्यवहार और आचार-विचार से निर्मल होना जिसे विमला कहा जाता है।

9. उत्कर्षिणि कला- इसका अर्थ होता है प्रेरित करने की क्षमता। उन्होंने अकर्म से सुकर्म की ओर ले जाने का संदेश दिया जो गीता-सार भी कहलाता है।


10. विवेक कला- न्याय करना और इसके पक्ष में फैसला देना। उदाहरण के लिए श्री कृष्ण ने युद्ध टालने के लिए पांडवों को दुर्योधन से पाँच गाँव मांगने की सलाह दी थी।

11. कर्मण्यता कला- अपनी पूरी क्षमता और कुशलता से काम करना ही कर्मण्यता है। उदाहरण स्वरुप उन्होंने युद्ध में हथियार नहीं उठाए और अर्जुन का सारथी बनकर युद्ध में शामिल हुए।


12. योगशक्ति कला- योग का अर्थ होता है जोड़ना उन्होंने अपने कर्म को मन से, मन को धर्म से जोड़ लिया इसीलिए उन्हें योगेश्वर भी कहा जाता है।


13. विनयशीलता- यानी अहंकार के भाव से दूरी बनाए रखना। जैसे महाभारत युद्ध में विजय का श्रेय पांडवों को देना इनकी विनयशीलता का ही प्रमाण है।


14. सत्य वचन- इन्होंने धर्म की रक्षार्थ सत्य को परिभाषित करने के लिए शिशुपाल का वध किया।


15. आधिपत्य- गुणों से परिपूर्ण व इससे प्रभावित करना ही आधिपत्य कला है। उन्होंने मथुरा वासियों को द्वारिका में बसने के लिए तैयार किया और नगरवासियों को आधिपत्य कला को सिखलाया।

16. अनुग्रह उपकार- नि:स्वार्थ भाव से लोगों की सेवा करना और भलाई के लिए काम करना अनुग्रह उपकार है।


जन्माष्टमी के शुभ अवसर पर हम सब इनके सोलह कलाओं से कुछ न कुछ सीख व प्रेरणा ले ही सकते हैं।



सुरेश कुमार गौरव, उ. म. वि.रसलपुर, फतुहा, पटना (बिहार)

No comments:

Post a Comment