वर्तमान समय में शिक्षा के क्षेत्र में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रबंधन की चुनौतियाँ गंभीर चिंता का विषय बनी हुई है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के प्रबंधन में आने वाली समस्याएँ शिक्षा रूपी वृक्ष की जड़ों में लगे दीमक की भाँति वृक्ष को वट वृक्ष बनने से रोकती हैं। ये समस्याएँ शिक्षा रूपी वृक्ष को निरंतर अंदर ही अंदर खोखला बना रही हैं। शिक्षा की गुणवत्ता के मार्ग में अनगिनत बाधाएँ सुरसा राक्षसी की भांति निरंतर अपना मुँह बड़ा किए जा रही है। यदि समय रहते राष्ट्र के शिक्षाविदों ने देश के प्रशासकों से शिक्षा व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन लाने की मुकम्मल व्यवस्था नहीं कराई तो शिक्षा में गुणवत्ता की बात बेईमानी होगी। किसी भी राष्ट्र को जनसाधारण तक उन्नत शिक्षा व्यवस्था पहुँचाने में अनेक प्रयास करने होते हैं तथापि शिक्षाविद यदि
शिक्षा की गुणवत्ता में आने वाली समस्याओं का पूर्वानुमान लगाकर उसके उचित रोकथाम की मुकम्मल व्यवस्था कायम की तो संभव है राष्ट्र के भविष्य को अवश्य ही गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त होगी। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्ति के मार्ग में अनेकानेक समस्याएँ हैं जिनमें से कुछेक महत्वपूर्ण समस्याओं का वर्णन अधोलिखित है -
1.अपर्याप्त संसाधन और अधोसंरचना- भारत वर्ष की आजादी के 75 से अधिक वसंत बीत जाने के बाद भी कई ग्रामीण और शहरी विद्यालयों में बुनियादी सुविधाओं के नाम पर विद्यालयों में खानापूर्ति भर ही है। शिक्षा सुलभ कराना और शिक्षा गुणवत्तापूर्ण उपलब्ध कराना दोनों में बहुत अंतर है। बात जब गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की हो रही हो तो यह आवश्यक हो जाता है कि राष्ट्र के एक जैसे सभी प्राथमिक, मध्य, माध्यमिक विद्यालयों में समान पर्याप्त कक्षाएँ, शौचालय, पुस्तकालय, क्रीड़ांगन, प्रयोगशाला, कंप्यूटर लैब आदि उपलब्ध हो तथा साथ ही इन संसाधनों का बच्चों को भरपूर लाभ उठाने के अवसर मौजूद हों। बुनियादी सुविधाएँ एवं पर्याप्त अवसर के अभाव में छात्रों के समग्र विकास की कल्पना व्यर्थ है।
2.शिक्षकों की कमी और प्रशिक्षण का अभाव- भारत वर्ष के कई राज्यों के अधिसंख्य विद्यालयों में शिक्षकों की संख्या शिक्षा के अधिकार अधिनियम के अनुरूप नहीं है जिससे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुलभ कराना शिक्षा का अधिकार अधिनियम के लागू हुए 14 वर्ष बीत जाने के बाद भी संभव नहीं हो सका है। मध्य विद्यालयों में विषय अनुरूप जैसे विज्ञान, गणित, सामाजिक विज्ञान और भाषा जैसे विषयों के लिए शिक्षक आज भी मानकानुरूप नहीं है। इसके अलावा शिक्षकों के प्रशिक्षण उनके क्षमता संवर्द्धन एवं कौशल विकास हेतु सतत नवाचारी एवं अनुभवजन्य प्रशिक्षण की समुचित व्यवस्था की कमी भी एक बड़ी चुनौती है।
3.अत्यधिक जटिल पाठ्यक्रम और रटने की प्रवृत्ति- शिक्षा में गुणवत्ता लाने के लिए पाठ्यक्रम को यथासंभव बालानुकुल, संक्षिप्त और व्यावहारिक होना चाहिए। जिस देश के प्रशिक्षण महाविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शिक्षकों को विभिन्न प्रकार के दर्शन का ज्ञान देते हुए शिक्षा को बाल केंद्रित बनाने की बात की जाती है। शैक्षिक पाठ्यचर्या के प्रबंधन में व्यापक दृष्टिकोण की पुरजोर वकालत की जाती है उसी देश के बच्चों को लगभग सभी प्रकार के विद्यालयों में अत्यधिक जटिल पाठ्यक्रम को ढोने, रटने और अव्यवहारिक शिक्षा को प्राप्त करते हुए देखना गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को मुँह चिढ़ाने जैसा प्रतीत होता है। गुणवत्तापूर्ण और बाल मनोनुकूल शिक्षा उपलब्ध नहीं होने के कारण अधिसंख्य बच्चों में आज भी सृजनात्मकता और आलोचनात्मक चिंतन के गुण विकसित नहीं हो पा रहे हैं। यह चिंतन-मनन का विषय है।
4.सूचना तकनीकी व प्रौद्योगिकी शिक्षा का अभाव - आज के डिजिटल साक्षरता युग में भी शिक्षा में प्रौद्योगिकी का समावेश शत प्रतिशत विद्यालयों में हाशिए पर दृष्टिगोचर है। आज के आधुनिक डिजिटल साक्षरता युग में शिक्षा की व्यवस्था कुछ ऐसी होनी चाहिए कि सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में अवस्थित विद्यालयों में पढ़ रहे बच्चे इनफॉर्मेशन एंड टेक्नोलॉजी सिटी के नाम से जाने जाने वाले शहरी क्षेत्रों में स्थित विद्यालयों के समान डिजिटल साक्षरता के मामले में कदम से कदम मिलाकर चल रहे हों। उन्हें दुनिया आभासी न प्रतीत होती हो।
5.अर्थव्यवस्था और शिक्षा का संबंध- आर्थिक स्थिति का सीधा प्रभाव शिक्षा की गुणवत्ता पर पड़ता है। गरीब और निम्न-आय वाले परिवार अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा उपलब्ध नहीं करा पाते, जिससे बच्चों के शैक्षणिक प्रदर्शन में गिरावट आती है। राष्ट्र को कुशल मानव संसाधन की प्राप्ति हेतु गरीब और निम्न आय वाले परिवार के बच्चों को तब तक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त नहीं होगी जब तक देश में एक समान शिक्षा प्रणाली व्यवस्था कायम न हो। अमीर के बच्चो के लिए अलग स्कूल गरीब के बच्चो के लिए अलग स्कूल जब तक किसी भी राष्ट्र में अलग अलग अस्तित्व में बने रहेंगे शिक्षा की गुणवत्ता के नाम पर केवल नाम मात्र प्रबंधन ही होता रहेगा।
6.मूल्यांकन प्रणाली में सुधार की आवश्यकता- हमारी मूल्यांकन प्रणाली अभी भी केवल हमारे विकासात्मक आयाम के ज्ञानात्मक पक्ष का आकलन कर उसे अंकों और परीक्षा के परिणामों में परिवर्तन कर बच्चों के बीच में एक खाई खोदने का कार्य करती आ रही है। जब तक छात्रों के विकासात्मक आयाम के तीनों पक्षों - ज्ञानात्मक, भावनात्मक, मनोगत्यात्मक पक्ष पर समभार देते हुए मूल्यांकन प्रणाली विकसित नहीं हो जाती तब तक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के नाम पर, उनके समग्र विकास के नाम पर बच्चों से केवल छलावा ही होता रहेगा। छात्रों के समग्र विकास को ध्यान में रखते हुए मूल्यांकन प्रणाली में सुधार की सतत आवश्यकता है ताकि छात्रों को व्यावहारिक और 21वीं सदी में निहित जीवन कौशल का उचित प्रबंधन करते हुए उनका सतत रूप से आकलन कर उनका समग्र विकास कर सके।
7.सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभाव- जब शिक्षा में गुणवत्ता प्रबंधन की बात हो रही है तो शिक्षा प्रणाली पर सामाजिक और सांस्कृतिक कारकों पर पड़ने वाले प्रभाव उससे अछूते कैसे हो सकते हैं ? विविधताओं से भरे इस राष्ट्र में विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, शिक्षा में लिंग भेद, सामाजिक असमानता, जातिवाद का बोलबाला और बाल विवाह आदि समस्याएँ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा में रोड़े बने हुए हैं।
8.प्रबंधन और प्रशासनिक खामियाँ- शिक्षा में गुणवत्ताप्रबंधन में आने वाली जब समस्या पर बात हो रही हो तब सबसे संवेदनशील बात हो जाती है कि शिक्षा के क्षेत्र में विभिन्न स्तरों पर शैक्षिक व प्रशासनिक रूप से सुदृढ़ व्यक्तियों द्वारा प्रशासनिक असमर्थता और भ्रष्टाचार का हवाला देकर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की चर्चा पर विराम लगाना उनकी प्राथमिकता में शुमार हो जाता है जिससे शिक्षा का स्तर अपने रसातल पर पहुँच जाता है।
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने के लिए ऊपर दी गई चुनौतियों से जब तक राष्ट्र जूझता रहेगा शिक्षा में गुणवत्ताप्रबंधन एक सर्वाधिक चर्चित विषयों में से एक विषय बना रहेगा। अतएव आवश्यक है कि हम सभी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रबंधन हेतु प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इसकी बेहतरी के लिए नीतियाँ, संसाधनों का कुशलतम उपयोग, शिक्षकों का नियमित प्रशिक्षण और तकनीकी सशक्तिकरण की माँग करते रहें।
अवनीश कुमार
व्याख्याता
बिहार शिक्षा सेवा
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