अंतःक्रिया (Interaction) कुशल संप्रेषण (Communication) का परिचायक है। आप यह बतलाइए कि चीनी का स्वाद कैसा होता है- मीठा या नमकीन। अनायास आप जवाब देंगे- मीठा। लेकिन आप ने यह कैसे समझा कि चीनी मीठी होती है। उत्तर है- चखकर यानी कि ज्ञान इंद्रियों के द्वारा। यदि चीनी आपकी ज़ुबान के बजाय माथे पर रख दिया जाए तो क्या होगा? क्या आप इस तरह बतला सकेंगे कि चीनी का स्वाद कैसा होता है- बिल्कुल नहीं, क्योंकि चीनी जब ज़ुबान पर लार से घुलता-मिलता है तभी एक प्रकार की रासायनिक प्रतिक्रिया होती है। एंजाइम भी उसमें मिलते होंगे। फिर तब हम अनुभव करते हैं कि कौन-सी चीज़ मीठी है और कौन-सी चीज़ कसैली है। लेकिन मिर्च तो और भी संवेदनशील होती है जो कि ज़ुबान को तुरंत स्वाद चखाती है। यदि आँख, कान और नाक पर भी मिर्च का पाउडर या पेस्ट लग जाए तो नानी याद आ जाती है। हमें यह पूरा आभास हो जाता है कि मिर्च कितनी तीखी होती है।
हम इस बात को समझने की कोशिश करें कि हमारे लाख समझाने के बाद भी बच्चा नहीं समझता है। लाख पढ़ाने के बाद भी बच्चा नहीं पढ़ता है। लाख सिखाने के बाद भी बच्चा नहीं सीखता है। आखिर क्यों? सभी प्रश्नों का एक ही जवाब है- सटीक संप्रेषण का नहीं होना। अब सवाल उठता है कि सटीक संप्रेषण क्यों नहीं हो सका तो समझ लीजिए कि इसके लिए आपकी सारी काबिलियत दांव पर लगने वाली है। आपकी शैक्षणिक गतिविधियों की धज्जियाँ उड़ने वाली है। यदि आप अपनी बातों को उन बच्चों तक पहुँचाने में सफल नहीं हैं तो दिक्कत है, हालांकि इस बात को भी समझना होगा कि बच्चों पर हर बात थोपी नहीं जा सकती। हाँ, यदि विद्यालय में एक स्वच्छ एवं स्वस्थ्य तथा बाल अनुकूल वातावरण का निर्माण हो जाता है तो सीखने-सिखाने की प्रक्रिया प्रभावी हो जाती है और बच्चों के लिए लाभदायक भी। एक अच्छा माहौल के सृजन के लिए शिक्षा के तीनों आधारों की आवश्यकता पड़ती है। बच्चे को समझना, परिवेश को समझना और शिक्षण संकल्पना संबंधित बातों के लिए तो शिक्षा के मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और दार्शनिक आधार को जानना आवश्यक है। विद्यालय में बच्चों से मित्रवत व्यवहार, प्रेम और भय मुक्त वातावरण ही एक दूसरे को करीब लाते हैं। शिष्य और गुरु के संबंध में आत्मीयता एक बड़ी शर्त है, तभी अंत:क्रिया की संभावना बनती है। माचिस से उसकी तिल्ली का जलना रगड़ने से इस प्रकार होता है कि आग में बदल जाता है। यदि तिल्ली को सिर्फ माचिस की डिबिया पर रगड़ने के बजाय सिर्फ स्पर्श कराया जाए तो क्या तिल्ली जल पाएगी ? शायद नहीं। मतलब कि सही से रगड़ा नहीं गया अर्थात मिलने-जुलने का कार्य नहीं हुआ। बच्चे जब शिक्षक से हिल-मिल जायेंगे तो समझिए कि कुशल संप्रेषण की संभावना सौ फीसदी बन जाएगी और अंत:क्रिया पूरी-पूरी होगी। दोनों के बीच सीखने-सिखाने की प्रक्रिया उड़ान भरेगी। फिर तभी बच्चे आपसे सवाल करने में सहज हो सकेंगे। सवाल पूछना सीखने की प्रक्रिया के अग्रसर होने का लक्षण है। बच्चे यदि वर्ग- कक्ष में प्रश्नों की बौछार करें तो समझ लीजिए कि सीखने की प्रक्रिया प्रबल है और यदि वे सीखने में आनंद लेते हैं तो समझ में लीजिए कि सीखने की प्रक्रिया प्रकाष्ठा पर है। उदाहरण स्वरूप- कोई बच्चा जब साइकिल चलाना अच्छी तरह से सीख जाता है तो वह कभी हैंडल हाथ से छोड़कर तो कभी पेडल पर से पैर हटाकर साइकिल चलाते हैं, कलाबाजियाँ करते हैं। यह उसकी निपुणता को दर्शाता है। एक और अच्छा उदाहरण सर्कस है। सर्कस के खेल में झूला पर झूलने का कार्य दर्शकों के लिए बड़ा रोमांचक है लेकिन यह समझना होगा कि झूलने में दक्षता हासिल करने के लिए खिलाड़ियों को कितनी कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। फिर वह इस तरह झूलते हैं और इवेंट को करते हैं कि उनके हाथ या पैर अनायास अपने आप जिस जगह जाना हो, जिस चीज को पकड़ना हो, अपने आप परफेक्शन के साथ पहुँच जाता है, जैसे उनके हाथ हों या पैर, उनमें ही आँखें हैं। एकदम वे मास्टर होते हैं। यदि वे देखकर पकड़ने लगें तो इवेंट नहीं होगा बल्कि वे गिर जाएँगे। यही तो उनके झूला के खेल की निपुणता है। मतलब यह हुआ कि जब कोई किसी भी चीज को अच्छी तरह से सीख जाता है, निपुणता हासिल कर लेता है तो वह उन चीजों से खेलने लगता है। बच्चे जो सीखते हैं, चाहे साइकिल हो या मैथ्स, उसे आनंद में खेल की तरह चलाते या बनाते हैं तो समझ लीजिए कि वह पूरी तरह से सीख चुका है। हर चीज को सिखाने का यही सिद्धांत है। अच्छा टाइपिस्ट वही बनेगा जिनकी उँगलियों में आँखें हों। कीपैड को देखकर आप कितना टाइप करेंगे? ऐसे भी सृजनवाद या रचनावाद (Constructivism) का सिद्धांत है कि बच्चे स्वयं ज्ञान का सृजन करते हैं, बस बच्चों में छुपी प्रतिभा को निखारने की कला शिक्षकों में होनी चाहिए। शिक्षक समुचित वातावरण का निर्माण करें। बच्चों में सीखने की चुनौती भरें, यही तो एक शिक्षक का काम है। बच्चों में सीखने की ललक पैदा करें। जिज्ञासा पैदा करें। ज्ञान के प्रति प्यास पैदा करें। बच्चों में जब ज्ञान की प्यास होगी तो बच्चे स्वयं ज्ञान की प्राप्ति करने में जुट जाएँगे। खोजबीन करने की स्थिति हमेशा शिक्षकों को रचनी चाहिए। सभी बच्चे खोजी प्रवृत्ति के होते हैं। उनके अंदर ऐसे सहजात गुण होते हैं जो उनके सीखने में सहायक होते हैं क्योंकि बच्चे संग्राहक, खेल प्रिय, खोजी, संवेदनशील और अति क्रियाशील एवं चंचल होते हैं। बच्चों में जिज्ञासा पैदा करने हेतु शिक्षकों को शैक्षणिक गतिविधियों का सहारा लेना चाहिए क्योंकि गतिविधियाँ आनंददायक होती हैं जो बच्चों को भाता है और बच्चे बिना बोझ के सीखने की प्रक्रिया में स्वयं तल्लीन हो जाते हैं। बच्चा आनंद में सीखता है, बिना आनंद के सीखना मुश्किल है। भला, कष्ट में सृजनशीलता कहाँ से आएगी।
मो. ज़ाहिद हुसैन
प्रधानाध्यापक
उत्क्रमित मध्य विद्यालय
मलहविगहा, चंडी, नालंदा
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