बाल्यावस्था जीवन का मूल-विमल कुमार विनोद - Teachers of Bihar

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Thursday 19 November 2020

बाल्यावस्था जीवन का मूल-विमल कुमार विनोद

बाल्यावस्था जीवन का मूल

          बाल्यावस्था जन्म से लेकर अठारह वर्ष तक की उम्र को कहा जाता है। इस दरम्यान बच्चों का शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, नैतिक तथा शैक्षणिक विकास होता है। बाल्यावस्था में यदि बालक रूपी मिट्टी के बर्तन को सही रूप नहीं दिया गया तो उसका रूप विकृत सा हो जायेगा। बच्चों को जीवन के विकास के लिए उनके बाल्यावस्था को विश्व स्तर पर बचाने का प्रयास किया जा रहा है जिसका उत्तरदायित्व माता-पिता, परिवार, समाज, शिक्षक, विद्यालय सबों के कंधे पर डाली गई है जिसके दायित्व से हम भाग नहीं सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी बालकों को उनके "बाल-अधिकार" के रूप में बहुत सारे अधिकार प्रदान किये हैं- जिसमें बाल शिक्षा, बाल यौन शोषण से मुक्ति, भीखमंगी की समस्या से बचाव, कुपोषण से मुक्ति, बाल मजदूरी से सुरक्षा, एच• आई• वी• से संक्रमित बच्चे-बच्चियों को संरक्षित तथा प्रभावित बच्चों को संरक्षण दिये जाने की बात "बाल-अधिकारों के तहत" रखी गई है। 
(1) बाल शिक्षा- सबसे बड़ी बात यह है कि बच्चों को बाल्यावस्था में शिक्षा दिया जाना जरूरी है क्योंकि जब बच्चों को शिक्षा नहीं दी जायेगी तो फिर उन्हें  पढ़ने, बोलने, समाज के लोगों के बीच आचार-विचार, नैतिकता इत्यादि की बात समझ में नहीं आएगी। इसके लिए बच्चों को भोजन की आवश्यकता होती है जो कि समाज के हर गरीब बच्चे-बच्चियों के शिक्षा प्राप्त करने के रास्ते में रोड़ा बनकर आती है। इसकी व्यवस्था सरकार के द्वारा आँगनबाड़ी केन्द्रों तथा विद्यालय में चलाये जा रहे मध्यान्ह-भोजन के द्वारा किया जा रहा है।
(2) बाल मजदूरी- बच्चों के जीवन की एक बड़ी समस्या है बाल मजदूरी जो कि उनके बालपन को नष्ट कर देती है जिसका मूल कारण है माता-पिता की आर्थिक स्थिति का दयनीय होना। इस कारण वे अपने बच्चों को मजदूरी करने भेज देते हैं क्योंकि उनके मजदूरी से प्राप्त रूपये से संपूर्ण परिवार को भोजन मिल पाता है। ऐसी स्थिति में समाज के इस प्रकार के बच्चों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए बाल-मजदूरी से संबंधित बालकों के लिए भारतीय संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों के अंतर्गत शोषण के विरूद्ध अधिकार में स्पष्ट रूप से उल्लेख कर दिया है कि 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चे-बच्चियों को कारखानों तथा भारी कामों में लगाया जाना अपराध है। साथ ही ऐसे बच्चों के लिए विद्यालयों में नामांकन किये जाने के साथ-साथ "मध्यान्ह-भोजन" की भी व्यवस्था की गई है ताकि उन बच्चों को जब भोजन मिलेगा तब उनमें पढ़ने की इच्छा जगेगी। इसलिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1989 में "बाल-अधिकार" से संबंधित कानून बनाया गया है। इसके अलावा "यूनिसेफ" के द्वारा चलाये जाने वाले कार्यक्रम में विश्व के साथ-साथ भारत में "अर्पण" नामक गैर सरकारी संगठन के द्वारा "बच्चों के यौन शोषण से सुरक्षा एवं संरक्षण" दिये जाने का लगातार प्रयास किया जा रहा है। 
(3) कुपोषण- जिसका अर्थ है गर्भवती माता तथा बच्चों को मानक के अनुसार भोजन की प्राप्ति नहीं हो पाना जिसके चलते बच्चों का शारीरिक तथा मानसिक  विकास नहीं हो पाता है। इसके लिए गर्भवती माताओं को गर्भावस्था के दरम्यान शरीर के आवश्यकता अनुसार सारे विटमिन की प्राप्ति किये जाने के लिए आँगनबाड़ी केन्द्रों में पोषण सामग्री दिये जाने का प्रावधान किया गया है ताकि गर्भवती माताओं के गर्भ में पल रहे बच्चे कुपोषण के शिकार न हों।
(4) भीखमंगी की समस्या- बच्चों के जीवन की तबाही की एक प्रमुख समस्या भीखमंगी की समस्या है जहाँ पर गरीब तथा लाचार माता-पिता के द्वारा बच्चों को भीख मांगने के लिए प्रेरित किया जाता है। भीखमंगी एक सामाजिक समस्या है जिससे निजात पाने के लिए सरकारी तथा गैर सरकारी संगठनों के द्वारा "अनाथालय" में उन बच्चों को रखकर उनका बचपन बचाने का प्रयास करते हुये समाज की मुख्यधारा में वापस करने का प्रयास किये जाते हैं।
(5)एच• आई• वी• संक्रमित बच्चे- बच्चियों के संरक्षित तथा प्रभावित बच्चों को संरक्षण दिये जाने से संबंधित समस्या से बचाव के लिए कानून बनाये गये हैं। इसमें यह कहा गया है कि यदि इन बच्चों को संरक्षित नहीं किया जाएगा तो ये बच्चे दूसरों को भी प्रभावित कर सकते हैं जिससे बच्चों का एक बड़ा भाग तबाही के चरम शिखर पर पहुँच जाएगा।
          अंत मे हम कह सकते हैं कि सरकारी तथा गैर सरकारी संगठन तथा संयुक्त राष्ट्रसंघ के द्वारा 1989 में बाल संरक्षण एवं सुरक्षा से संबंधित अधिकार बनाकर बच्चे-बच्चियों के जीवन स्तर में सुधार करने के लिए सराहनीय कार्य किये गये हैं जिससे बच्चों के बालपन को बचाया जा सके। हमलोगों को भी ऐसे बच्चों को समाज की मुख्यधारा में लाने का प्रयास करना चाहिए ताकि
समाज के छोटे-छोटे नौनिहाल बच्चों के भविष्य को सुरक्षित तथा संरक्षित किया जा सके। हमलोगों को भी पूरे विश्व में चलाए जा रहे "बाल संरक्षण पखवारा" में
बालकों को उसके अधिकार के प्रति जागरूक करते हुए एक सुन्दर, बाल शोषण मुक्त तथा कुपोषण मुक्त समाज के निर्माण में सार्थक प्रयास का संकल्प लेते हुए इस क्षेत्र में बहुमूल्य योगदान देने का प्रयास करना चाहिए।

श्री विमल कुमार "विनोद" 
प्रभारी प्रधानाध्यापक 
राज्य संपोषित उच्च विद्यालय
पंजवारा, बांका (बिहार)

नोट- उपरोक्त विचार लेखक के स्वयं के हैं।

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