पं. राजकुमार शुक्ल-विजय कुमार उपाध्याय - Teachers of Bihar

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Friday 21 May 2021

पं. राजकुमार शुक्ल-विजय कुमार उपाध्याय

पं. राजकुमार शुक्ल 
                                                              
          आज कितनों को पता है कि चम्पारण में तिनकठिया के पूर्व और भी तकलीफदेह पंचकठिया प्रथा थी। पंचकठिया की लड़ाई बिना किसी बाहरी नेता की मदद से लड़ा गया। स्थानीय जनता और नेताओं के लम्बे संघर्ष के दबाव में अंग्रेजों को पंचकठिया हटाकर तिनकठिया करना पड़ा था। यह चम्पारण का दूसरा किसान-आन्दोलन था जो दो वर्षों तक अर्थात 1907 से 1909 तक चला। त्रस्त जनता के बीच से नायक निकले। साठी के समीप के शेख़ गुलाब ने इसमें महती भूमिका अदा की। अंग्रेज सिपाहियों को पटक-पटक कर पीटा। बेतिया के पीर मोहम्मद मुनीस ने अपनी लेखनी से इसे हवा दी जो लखनऊ से प्रकाशित ‘प्रताप’ के लिए लिखते थे। गणेश शंकर विद्यार्थी के प्रताप की उन दिनों देश में धूम थी। इस आन्दोलन में भी राजकुमार शुक्ल ने महती भूमिका निभाई जिस कारण अंग्रेजों से उनकी पुरानी अदावत बढ़ती चली गई। आंदोलन के अन्य अग्रगण्य अगुआ थे- लोमराज सिंह, संत राउत एवं राधुमल मारवाड़ी। अपनी माटी के इन वीर सपूतों से जुड़े स्थलों की जानकारी तो दूर इनके नाम तक हमारी किताबों में नहीं  मिलते। 
          चलिए अब हम चम्पारण के तीसरे किसान-आंदोलन की ओर चलते हैं। पचकठिया हटने के बावजूद भी तिनकठिया व्यवस्था अर्थात प्रत्येक बीस कट्ठे में तीन कट्ठे में नील की खेती करना किसानों के लिए पीड़ादायी था परन्तु किसानों का क्षोभ आंदोलन में नहीं बदल पा रहा था। उधर अंग्रेज अधिकारी एमन से दुश्मनी राजकुमार शुक्ल के धन व तन दोनों में सेंध लगा रहा था फिर भी उन्होंने तीनकठिया को कांग्रेस की आवाज बनाने की ठानी। लखनऊ जाकर कांग्रेस अधिवेशन में इसे मुद्दा बनाने का प्रयास किया। गाँधी जी से बात की। मगर, गुजराती-भोजपूरी के भाषाई फर्क में बातों को दमदार ढंग से न रख पाए। इसके बाद उन्होंने अपनी बातों के लिए वकील ब्रज किशोर प्रसाद की मदद ली। गाँधी जी ने उन्हें वकालत की फी ऐंठने वाला वकील समझा। बात को हलके में लिया परन्तु ज्यादा जिद किये जाने पर चम्पारण आने का आश्वासन दिया और शुक्ला जी से कहा कि आप हमें कलकत्ता लेने आयेंगे।
          अब चम्पारण के तीसरे किसान आन्दोलन की जमीन तैयार होने लगी। शुक्लजी गांधीजी के बारे में घूम-घूम कर प्रचार करने लगे। शुक्लजी, जो कभी money lending का काम करते थे अपना सारा पैसा इस भागदौड़ मे लगा दिए। गांधीजी को जब कलकत्ता से बुलाने का समय नजदीक आया तो उन्हें खुद कर्ज लेने की नौबत आ गई। कर्ज़ काढ कर कलकता गए। अख़बार जलाकर खाना बनाया, पैसा के आभाव में लाशवाली गाड़ी से भी यात्रा की। अंत में, गांधीजी के साथ मुजफ्फरपुर आये। गांधीजी को तीन दिन बाद मोतिहारी आना था। तब तक शुक्लजी मोतिहारी के ग्रामीण क्षेत्रों में आकर गांधीजी के लिए भीड़ जुटाने में रम गए। फिर, उसके बाद क्या हुआ- ये पाठ्यपुस्तकों में मिलती है परन्तु वो भी गाँधीजी तक ही महदूद होती है।
          पीर मोहम्मद मुनीस, राजकुमार शुक्ल या इन जैसे इस मिट्टी के वीर सपूतों को इन आन्दोलनों  की कीमत कैसे चुकानी पड़ी, किसे बताया जाता है? पीर मोहम्मद मुनीस जो एक शिक्षक पद पर थे, की नौकरी जाती है और उन्हें जेल की हवा खानी पड़ती है। राजकुमार शुक्ल का घर अफ़सर ऐमन द्वारा जलवाया जाता है। संघर्ष व दमन, धन एवं मन ही नहीं, शुक्ल के शरीर को भी झकझोरता है। क्षीणकाय हो चुके शुक्ल गाँधी से मिलने गुजरात जाते हैं। वहाँ कस्तुरबा उनकी स्थिति देख रो पड़ती हैं। गाँधी शुक्ल को जल्दी ही स्वतंत्रता मिलने का आश्वासन देते हैं। शुक्ल वहाँ से लौटते हैं। घर पर कुछ बचा नहीं था। तो क्या करें, मोतिहारी में गोरखबाबू के यहाँ ठहरते हैं। जल्दी ही संघर्ष से थक चुका शरीर स्वर्ग सिधारता है [1929 में ] । रामबाबू जी के बगीचे में उनका अंतिम संस्कार होता है।
          जब मृत्यु की सूचना अंग्रेज अफ़सर ऐमन को मिलती है, वह खुशी से उछल पड़ता है। पर एकबारगी स्तब्ध हो जाता है और सूचना देने वाले अपने मुलाजिम को 300 रुपये देते हुए कहता है कि उस देशभक्त के परिवारवाले को श्राद्धकर्म के लिए दे आओ। मुलाजिम जानना चाहता है कि वे अपने दुश्मन के लिए इतने पैसे क्यों दे रहे हैं। ऐमन जवाब देता है– ‘‘शुक्ल के जान की कीमत तुम क्या जानोगे? वह चम्पारण का अकेला शेर था’’। ऐमन श्राद्धकर्म के दिन भी आता है। डा० राजेंद्र बाबू सहित कई स्वतंत्रता सेनानी वहाँ पहुंचते हैं। डा० राजेंद्र बाबू ऐमन से कहते हैं, ‘’अब तो आप खुश होंगे कि आपका दुश्मन दुनिया से चला गया।‘’ ऐमन जवाब में वहीँ बात दोहराता है।" एक बात तो है कि शुक्ला चम्पारण के एकमात्र शेर थे। उनके जाने के बाद लगता है मैं भी ज्यादा दिन जिन्दा नहीं रहूँगा।‘’ सचमुच कुछ हीं महीनों बाद ऐमन की मृत्यु हो जाती है।
          लब्बोलुआब यह है कि उस समाज पर शासन करना आसान है जिसे यह लगता है कि उसपर हो रहे दमन को रोकने के लिए इश्वर किसी-न-किसी बन्दे को एक-न-एक दिन भेजेगा। और हमारी पुस्तकें हमें ऐसा ही गढ़ रहीं हैं। जिस समाज को यह भान हो कि  जब-जब परिस्थितियां विकट हुई हैं हमारे पूर्वज जूझें हैं और हममें जुझने का दम है, वह समाज स्वाभिमानी होता है। वहाँ समय के साथ सकारात्मक परिवर्तन करना आसान होता है। और यदि ऐतिहासिक चीजों को सही तरीके से रखा जाए तो इतिहास के पाठक इतिहास में हुए व्यवहारों, दुर्व्यवहारों एवं घटनाओं को मानवीय स्वाभाव एवं परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में परखेंगे। इससे उनका स्वाभाव सरल होगा एवं सकारात्मक परिवर्तन के लिए तत्पर दिखेंगे।
                                                   
[संदर्भ सामग्री- कहानी राजकुमार शुक्ल की, N.C.F 2005, राज समाज और शिक्षा]
                           

 विजय कुमार उपाध्याय
 उ. म. वि. सिंघिया हीबन

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