बच्चों का सर्वांगीण विकास कैसे करें-हर्ष नारायण दास - Teachers of Bihar

Recent

Thursday 6 May 2021

बच्चों का सर्वांगीण विकास कैसे करें-हर्ष नारायण दास

बच्चों का सर्वांगीण विकास कैसे करें

          संतान ही माता-पिता के लिए सबकुछ है। उनकी जिन्दगी भर की सम्पदा और धन-दौलत से कहीं अधिक लेकिन इसी सन्तान की देख-भाल में अभिभावक कितनी उपेक्षा बरतते हैं शायद उनको भी इस बात का आभास नहीं हो पाता। कोई भी व्यक्ति अपनी सम्पत्ति का तिरस्कार, अवहेलना और उपेक्षा नहीं करता लेकिन आज के समय में अभिभावकों की सबसे बड़ी सम्पत्ति कहे जाने वाले ये बच्चे ही सबसे अधिक उपेक्षा का शिकार अपने अभिभावकों से हो रहे हैं।आज अपने बच्चों के लिए अभिभावकों के पास समय नहीं निकल पा रहा है। माता-पिता अपने बच्चों को स्कूल भेजकर ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ ले रहे हैं।
          अपने बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए अभिभावकों को यह जानना आवश्यक है कि बच्चे का सही विकास तभी संभव है जब माता-पिता अपना प्यार भरा स्नेह-आँचल उसे देते हैं जिससे उसकी भावनाएँ पोषित होती रहें। इस बात का सदैव ध्यान रखें कि बच्चा अपने माता-पिता के सान्निध्य के लिए हर पल तरसता है और उसकी यह तड़पन तब ज्यादा बढ़ जाती है जब वह स्वयं को अकेला महसूस करता है। बच्चों की भावनात्मक प्यास को बुझाने के लिए उन्हें केवल उपहार देना ही पर्याप्त नहीं होता बल्कि उनके साथ समय बिताना उससे भी ज्यादा जरूरी होता है। माता-पिता के सान्निध्य साहचर्य के अभाव में बच्चे के अन्दर उपजी भावनात्मक स्नेह-शून्यता उसके व्यक्तित्व में एक कुण्ठा, एक वितृष्णा एवं विकृति लाने का कारण बन सकती है जिसका उभार उसके व्यक्तित्व में किसी भी रूप में हो सकता है।
          प्रायः अभिभावक अपने बच्चों से उनकी क्षमता का मापन किए बगैर ही बहुत कुछ अपेक्षा करते हैं। अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने का बोझ उन मासूम बच्चों के ऊपर डाल देते हैं और बच्चे वैसा नहीं कर पाते जैसा वे चाहते हैं। बच्चे का जो स्वाभाविक विकास होना चाहिए वह माता-पिता की "चाह'' पूरा करने में कुछ और ही रूप ले लेता है।कभी-कभी बच्चा अपने अभिभावकों की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं का विरोध भी करता है क्योंकि उसे अपनी रुचि-अभिरुचि एवं क्षमता के अनुसार विकास करना अधिक सहज एवं सही महसूस होता है।
          अधिकांश अभिभावक अपने बच्चे को न समझते हैं, न समझना चाहते हैं इसलिए उनका व्यवहार बच्चों के लिए एक समस्या बन जाती है और बच्चे उनके लिए समस्या का केन्द्र बिंदु बन जाते हैं। ऐसे बच्चों के गहन अध्ययन से यही तथ्य सामने आया है कि उनके व्यवहार में जो अवांछनीयता देखने को मिली, उसके मूल कारणों में माता-पिता अथवा अभिभावकों की उपेक्षा, प्यार की कमी, तिरस्कार, प्रशंसा का अभाव एवं महत्वाकांक्षाओं का थोपना आदि था। ऐसे बच्चों के अभिभावक उन्हें बच्चा मानकर अपने ही स्तर से समझने की भूल करते हैं और उनसे बहुत कुछ अपेक्षा करने लगते हैं।उसे पूरा न कर पाने पर ताने देते हैं, अपशब्द कहते हैं एवं अन्य बच्चों से तुलना करते हैं। इससे बच्चों में कुंठा का विकास, विद्रोह का अंकुरण, हीन भावना एवं उदासीनता इत्यादि पनपते लगते हैं।
          हमारे समाज में ऐसा माना जाता है कि बच्चे हमारे समक्ष एक कोरे कागज की तरह होते हैं जिसपर हम कुछ भी लिखकर अपने अनुसार बना सकते हैं लेकिन यह अधूरा सच है। बच्चे उस वाद्ययंत्र की तरह होते हैं जिसकी "ट्यून'' पहले से निर्धारित होती है। जैसे वीणा, हारमोनियम, तबला इत्यादि से अपनी ध्वनि निकलती है उसी तरह  अभिभावक या स्वयं बच्चे अपने जीवनरूपी वाद्ययंत्र पर  वही ध्वनि बजा सकते हैं जिसके लिए वह टयूण्ड है लेकिन अभिभावक उस वाद्ययंत्र पर अपनी इच्छानुसार सरगम का संगीत सुनना चाहते हैं जो प्रायः संभव नहीं हो पाता। कभी-कभी बच्चों की सरगम अपने अभिभावकों से मेल खाती है लेकिन यह हमेशा सम्भव नहीं होता।
          प्रायः अभिभावक अपने बच्चों पर पूरा आधिपत्य चाहते हैं, उनकी स्वतंत्रता को बाँधना चाहते हैं, उनके ख्वाबों का ध्यान न रखकर अपना सपना पूरा कराना चाहते हैं और इस तरह ऊर्जा एवं उनके उत्साह को ही वे ठंढा कर देते हैं। वे अपनी धुन एवं चाह में बच्चों के साथ अन्याय करते हैं, उनकी बचपन की मासूमियत शैतानी और उनका बचपना उनसे छीन लेते हैं। ज्यादातर अभिभावक बच्चों के उठने-बैठने, बोलने-चलने, हँसने-बात करने, खेलने कूदने पर अंकुश लगाते रहते हैं। वे बच्चों की पूरी जिन्दगी का हिसाब-किताब अपने ही अनुसार चाहते हैं जो कि एक जबरदस्त रुकावट है बच्चों के स्वाभाविक एवं सर्वांगीण विकास में। बच्चों के सहज विकास के लिए अभिभावकों को अपनी ओर से उन्हें सहायता सहयोग एवं संरक्षण देने के लिए हमेशा तत्पर रहना चाहिए और उनके कार्यों में अपना अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
बच्चों का मन बहुत संवेदनशील एवं कोमल होता है। वह मल्टीचैनल के समान अपने चारों ओर के सम्पूर्ण परिवेश से प्रभावित होता है। उसे अपने ढंग से विकसित होने का पूर्ण अधिकार है और जब कभी भी वह अपने इस अधिकार को अव्यक्त-अस्पष्ट प्रयासों एवं प्रतिरोधों द्वारा प्रकट करने का प्रयास करता है तो अभिभावक उसे अपराध, अवज्ञा या अनुशासनहीनता मान लेने की भूल करते हैं तथा उसे सजा देने पर उतारू हो जाते हैं जबकि बालक का वह व्यवहार केवल उसके अपने ढंग से विकसित होने का एक "संघर्ष'' मात्र होता है। 
           अधिकांश अभिभावक अपने बच्चों को सजा देने में इस प्रकार का व्यवहार करते हैं मानो एक शत्रु से निपट रहे हों। गुस्से में बच्चों की पिटाई कर देना, जोर से थप्पड़ मार देना, उनके कान खींचना, डाँटना, अपशब्द कहना, डंडे या चप्पल से मारना आदि व्यवहार बच्चों के सुकोमल मन में अभिभावकों के प्रति ऐसी छाप छोड़ देते हैं जिसे वे मासूम बच्चे अपनी पूरी जिन्दगी नहीं भूल पाते और और कभी-कभी बचपन में उन्हें दी गई गहरी शारीरिक चोटें या मानसिक प्रताड़नाएँ उनके सामान्य व्यवहार को असामान्य बना देती हैं जिसके लिए उनके अभिभावक दोषी होते हैं और आश्चर्य की बात तो यह है कि अभिभावकों को यह बात पता ही नहीं होती कि उनके कारण उनके बच्चों को भविष्य में किस तरह के विकृत व्यवहार हीन भावना का  सामना करना पड़ेगा। इस तरह अभिभावक ही अपने बच्चों के विकास  में सबसे बड़े बाधक बन जाते हैं। 
          अभिभावकों द्वारा दी गयी प्रताड़ना एवं कष्टों को बच्चों का सहज मन कभी भूल नहीं पाता। हालाँकि उनसे मिलने वाला प्यार इतना होता है कि बच्चे उनसे हमेशा जुड़े रहते हैं लेकिन उनके अन्दर पैदा हो गए जख्मों को कभी भी उनका प्यार भर नहीं पाता और इसी का परिणाम होता है कि बच्चे घर से भाग जाना चाहते हैं या भाग जाते हैं और कुसंगति में फँस जाते हैं। अकेलेपन की घुटन में जीते हैं और जिन्दगी भर ऐसे लोगों की तलाश में रहते हैं जो उनकी वेदना को दूर कर सके और उन्हें सच्चा प्यार दे सके।
          बच्चों की अधिकांश समस्याओं का समाधान बड़ी आसानी से हो जाए यदि अभिभावक यह स्वीकार लें कि उनका "बच्चा तो बच्चा'' है। बचपन तो उसके सीखने की शुरुआत है और उसे अभी बहुत कुछ सीखना है। अभिभावक अति शीघ्रता करते हैं जबकि उनका बच्चा धीरे-धीरे सीखता है। अभिभावकों का यह दायित्व है कि वे बच्चों के विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियां, साधन जुटाएँ और बच्चों को अपनी गति से सीखने दें। उनका बच्चा एक सुसंस्कारी व्यक्ति बने, इसी में उन्हें पर्याप्त सहायता-सहयोग करना है। बच्चे को अपने जीवन का रास्ता स्वयं चुनने दें और उसमें सहयोग करें न कि अपनी मर्जी के अनुसार उसकी इच्छाओं का दमन करके उसका रास्ता चुनें। ऐसा करने से उसकी क्षमताओं का भरपूर उपयोग नहीं किया जा सकता और उसका जीवन, कुंठा, निराशा, उदासी एवं घुटन से घिर सकता है।
          बच्चों को सहयोग करने का एक दूसरा पक्ष यह भी है कि बच्चों के प्रति अत्यधिक कोमलता एवं स्वच्छंदता उचित नहीं। आवश्यकता अनुसार अनुशासन भी उचित है। वे यदि गलत दिशा में चले तो उन्हें रोकना उचित ही नहीं आवश्यक भी है अन्यथा अनियंत्रित स्वच्छन्दता बालक को उद्दण्ड बना देती है। अतः बच्चों के विकास के लिए अभिभावक एवं उनके अध्यापकों को मिलकर सोचना चाहिए। कभी भी बालक की उत्सुकता एवं जिज्ञासा को कुचलना नहीं चाहिए, उसे जिम्मेदारियाँ दी जानी चाहिए। क्षमतानुसार चुनौतियाँ प्रस्तुत करनी चाहिए। लेकिन कभी भी उसके उत्साह को ठेस नहीं पहुँचानी चाहिए, भले ही उसकी उपलब्धि अभिभावकों की आशा के अनुरूप हो या न हो और बच्चे को ऐसी कुसंगतियों एवं स्थितियों से भी बचाना चाहिए जो उसे बार-बार चोटिल करती हों, उसके मन में हीन भावना भरती हों। अभिभावकों को हमेशा यह स्मरण रखना चाहिए कि वे बच्चों के  व्यक्तित्व के निर्माता नहीं हैं, केवल निर्माण में सहायक हैं। बच्चे सामान्यतः अच्छे ही होते हैं। यदि उनके कदम बहकते हैं, भटकते हैं तो उन्हें रोकना चाहिए, अन्यथा उन्हें स्वयं चलने देना चाहिए। जो बच्चे अन्य बालकों से पिछड़ रहे हैं उन्हें आगे बढाने में भरपूर सहयोग करना चाहिए। बच्चों की सृजनशीलता विकसित करने के लिए उन्हें उत्प्रेरित एवं प्रोत्साहित करते रहना चाहिए। यदि बच्चा अपने माता-पिता का सम्मान नहीं कर रहा है तो अभिभावकों को हीं आत्म विश्लेषण करना चाहिए। बच्चों से संवाद करना एक कला है, उसे सीखना चाहिए।
          अभिभावकों को अपने बच्चों की अभिरुचियों को समझना एवं स्वीकारना चाहिए। बच्चे देश का भविष्य हैं, नई पीढ़ी हैं। हर नई पीढ़ी का अपना एक माहौल होता है, दिशा होती है, इसलिए आवश्यकता है पीढ़ियों से तालमेल बैठाने की। उन्हें ज्यादा कुछ कहने, उपदेश देने की आवश्यकता नहीं, केवल इतना आभास करा देने की आवश्यकता है कि उनके लिए क्या उचित है और क्या अनुचित ताकि  बच्चों में स्वविवेक जाग्रत हो सके, वे स्वयं निर्णय लेना सीख सकें और यही बात उनकी पढ़ाई के संबंध में भी है। उन्हें वही पढ़ाया जाए जो वे पसन्द करते हों। अपनी महत्वाकांक्षाओं को हम उनपर थोंपे नहीं बल्कि उनकी स्वयं में अंतर्निहित क्षमताओं को जाग्रत करें, उन्हें पोषण दें, उन्हें प्रस्फुटित और विकसित होने में सहयोग करें और वह भी अपेक्षित रूप में। एक औऱ विशेष बात कि माता-पिता बालकों को हर तरह की शिक्षा देने में रुचि रखते हैं पर एक विशेष प्रकार की शिक्षा देना नहीं चाहते क्योंकि इसमें उनको अपनी स्वयं की सत्ता पर खतरा नजर आता है। यह शिक्षा है- निर्भीकता और स्वतंत्रता की।अगर बालक स्वतन्त्र और निडर है तो यह समझना चाहिए कि वह हर तरह से शिक्षित है। डरपोक और पराधीन बालक अनपढ़ बच्चे से भी गया-बीता है।
          अतः यदि अभिभावक बच्चों को समझने के बजाय खुद को समझें, बच्चों को समझाने के बजाय खुद को समझाएँ उनका उपचार करने के बजाय अपना उपचार करें तभी वे अधिक समझदार होकर अपने बच्चों के प्रति न्याय कर सकेंगेऔर उन्हें वह सब दे सकेंगे जिसकी उन्हें आवश्यकता है।


हर्ष नारायण दास
मध्य विद्यालय घीवहा (फारबिसगंज)
अररिया

1 comment: