भाषा भाव की अभिव्यक्ति करती है । यह परस्पर संवाद को गति प्रदान करती है। भाषा बोधगम्य , भावगम्य और सामाजिक स्मप्रेष्ण का माध्यम है। हिंदी भाषा की सहजता और वैज्ञानिकता दोनों आधार पर निश्चित रूप से संपूर्णता के समीप है।
हिंदी दिवस के अवसर पर आइए हिंदी को भाषा के वैज्ञानिकता के आधार पर परखने का प्रयास करें। वैसे हिंदी की साधिका होने के नाते हिंदी दिवस पर उत्सव मनाना मेरे लिए सौभाग्य या गर्व का विषय नहीं है बल्कि यातना , पीड़ा और चिंतन मनन का विषय हे अतः मैं हिंदी दिवस की शुभकामना निवेदित करने में स्वयं को सक्षम नहीं पाती हूं ।इसलिए आप स्वजनों से अपेक्षा करती हूं कि आप भी मेरा साथ दें ताकि हिंदी दिवस अयोजित करने की आवश्यकता नहीं पड़े आइए हम हिंदी को स्वावलंबी और सबल बनाए का प्रयास करें। संभवतः आप सब इस यज्ञ में अपनी आहुति दें रहे है अतः प्रयास के सफलता की शुभकामनाएं।
अपनी वार्ता को नियंत्रित करते हुए हम हिंदी की वैज्ञानिकता को परखने का प्रयास करते हैं। हिंदी भाषा को उत्पति संस्कृत भाषा से हुई है। लिपि भी समान है। हिंदी के बारे में हम सब निश्चित रूप से कह सकते हैं कि जैसा हम पढ़ते हैं, वैसा ही लिखते हैं। अर्थात इस में कट, पुट जैसी अनेकों ध्वनि संबंधी भ्रम और केमिस्ट्री और चोपरा जैसी भाषाग्म्य अपभ्रंश नहीं हैं। पुनः ई, क , इत्यादि के लिए अंग्रेजी में मानक वर्तनी नहीं है किंतु हिंदी में बलाघात के हिसाब से भी शब्द विन्यास और वर्तनी सुस्पष्टता से परिभाषित है। हिंदी में अंसवार और चन्द्रबिन्दु के अंतर की भी स्पष्ट व्याख्या है । इस प्रकार हम कई उदाहरण से प्रमाणित कर सकते हैं कि हिंदी में ध्वनिगम्यता और लेखन में अंतर न्यूनतम है और अन्य कई भाषाओं की तुलना में नगण्य है।
जब हम हिंदी वर्ण माला पर ध्यान केंद्रित करते हैं। हिंदी में लेखन की दृष्टि से 52 वर्ण हैं। स्वर और व्यंजन की सपष्टता है । उच्चारण की दृष्टि से क वर्ग का उच्चारण कंठ से , च वर्ग का तालू, ट वर्ग मूर्धन्य से,
त वर्ग दंत्य से , प वर्ग ओष्ठ्य से, इत्यादि भाषा के शब्द विन्यास और उच्चारण में आंतरिक तारतम्य स्थापित करती है और वैज्ञानिकता प्रदान करती है।
समय के साथ हिंदी ने अन्य भाषा के शब्दों को भी अपनाया है और लोकभाषा के शब्द भाव भी ग्रहण किया है। लेकिन यह हिंदी की ताकत है कि इसकी ग्रहणशीलता के कारण वैज्ञानिकता प्रभावित नहीं हुई है। उदाहरण के लिए हॉस्पिटल से अस्पताल की यात्रा में या जीजा, पाहुन या ओझा शब्द को आत्मसात करती हुई हिंदी भावगमता , माधुर्य एवम् वैज्ञानिकता में कभी भी दिग्भ्रमित नही होती है, संभवतः यह हिंदी की ताकत है। वस्तुत हिंदी अन्य कई भाषाओं की तरह लोक भाषा और लोक संस्कृति को समाहित करते हुए समृद्ध और बलशाली होती जा रही है, यह स्वागत योग्य है।
आइए हम दीपक की तरह या जुगनू की तरह हिंदी के प्रकाश से आलोकित होकर अपना जीवन धन्य करें।
डा स्नेहलता द्विवेदी ’आर्या’
मध्य विद्यालय शरीफगंज कटिहार
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