समालोचनात्मक समीक्षा
पहाड़ों,ऊँचाई वाले स्थान या जंगल से जब वर्षा का पानी निकलने का स्थान खोजने लगती है तब जोर(नाला)की उत्पत्ति होती है और जब कई नाले मिल जाती है तो एक छोटी नदी का निर्माण होता है तथा तथा कई छोटी नदी मिलकर एक बड़ी नदी का निर्माण करती है। पहाड़ ,पत्थर पर एक थैलोफायटा प्रजाति का लाइकेन पाया जाता है और वह लाइकेन "Universal Natural Pollution Indicator"भी होता है जिसके शरीर से एक एसिड निकलता है जो पहाड़ पत्थर को छोटे कणों में तोड़ देता है और वर्षा के समय वही पत्थर के कण पानी के साथ बहकर नदी तक पहुँचता है जिसे हम बालू कहते हैं। लाइकेन वहीं पर पाया जाता है जहाँ प्रदूषण मुक्त जगह हो और अभी हमारा वातावरण पूरी तरह से प्रदूषित होता जा रहा है तो वहाँ लाइकेन नहीं मिलेगा, जिससे बालू नहीं बनेगा,इसलिये बालू को बचाना बहुत जरूरी है क्योंकि उसमें जल संग्रहण की क्षमता सबसे ज्यादा पाया जाता है।बलुआई मिट्टी में एक बार पटवन कर देने से नमी हमेशा पायी जाती है। लेकिन आज के समय में जब बालू माफियाओं के द्वारा बिना किसी मानक को निर्धारित किये तथा एन जी टी के नियमों को ताख में रखकर बालू का अवैध उठाव किया जा रहा है वैसी स्थिति में नदियों का अस्तित्व मिटता जा रहा है।
नदियों में बालू के जगह पर घास उग आये हैं तथा निरंतर बहने वाली नदियाँ छोटी-छोटी तालाब का रूप धारण कर चुकी है।साथ ही नदियों से अवैध बालू के उठाव होने के कारण नदियों का महत्व ही पृथ्वी के लिए समाप्त होता जा रहा है,क्योंकि नदी ही मनुष्यों के जीवन जीने का एकमात्र संसाधन है।नदियों के अस्तित्व के मिटने के कारण आज जब अनावृष्टि की स्थिति उत्पन्न हो गई है,किसान अपने फसलों की सिंचाई के लिये अनाथ बन गये हैं तथा नदियों से जुड़े हुए अनगिनत डांड़ सूखने के कगार पर हैं तथा किसानों के पटवन का एक प्रमुख संसाधन पूरी तरह से समाप्त हो चुका है।
ऐसी स्थिति में नदियों के अस्तित्व को बचाया जाना आवश्यक है।जब तक नदी में बालू रहेगी तब तक नदी में जल का बहाव होता रहेगा और जब नदी में जल का बहाव होता रहेगा तब किसान।के खेतों की सिंचाई होती रहेगी । देश के अनेकों-अनेक नदियों का जलस्तर लगातार बालू चोरों की भेंट चढ़ा हुआ है।जिससे इन नदियों का अस्तित्व लगातार खतरे में पड़ता हुआ दिखाई देता है। नदी से लगातार अवैध बालू ऊठाव के कारण उक्त नदी में जल ग्रहण क्षेत्र समाप्त हो गया तथा दुर्भाग्य की बात है कि बहुत सारे शहर का जल स्तर पाताल लोक में चला गया,जहाँ"300 फीट"बोरिंग किये जाने के बाबजूद भी जमीन के नीचे से पानी के जगह पर हवा निकलती है।शहर के बहुत सारे जगहों में नदियों से अवैध बालू के उठाव के कारण नदियों का अस्तित्व खतरे में हो गया है इत्यादि जगहों पर भू-जल का स्तर पाताल लोक में चला गया है।
जहाँ तक कोरोना वायरस के संक्रमण काल में प्रवासी मजदूरों को रोजगार उपलब्ध कराने की समस्या है तो उसका निराकरण अवैध कोयला की ढुलाई,वनों से वृक्षों को काटकर बेचना या नदियों से अवैध बालू का उठाव करके बेचवाना ही नहीं है।
साथ ही यदि सरकार को प्रवासी मजदूरों को रोजगार उपलब्ध कराने की बात है तो उसे किसी सामुदायिक भवन में स्वरोजगार उपलब्ध कराने का प्रशिक्षण दिलाकर,कुछ ऐसे चीजों का निर्माण कराकर उसका बाजार तलाश कर राजस्व की प्राप्ति कराने की बात सोचनी चाहिये। नदियों से बालू उठाव के विकल्प का सुझाव-नदियों के बालू उठाव का विकल्प के तौर पर ईंट भट्टा "एस- फ्लाई" या फिर पहले की तरह मिट्टी का गारा पर बनाये जाने वाले भवन आज के सीमेंट-बालू के गारा पर बनाये गये भवनों से अधिक मजबूत हैं,उससे मकान बनाया जा सकता है। इसके अलावे बालू का जो स्त्रोत नाला से भी निकलने वाला बालू है उसका भी प्रयोग करके बालू प्राप्त किया जा सकता है। अवैध बालू के उठाव के लिये उत्तरदायी-
(1)सबसे पहले सरकार को जनसंख्या वृद्धि तथा जनसंख्या प्रबंधन करने का प्रयास करना चाहिये,जो कि सरकार के द्वारा नहीं बनाया जा रहा है।
(2)प्रवासी मजदूरों को कुछ रोजगार उपलब्ध कराया जाना चाहिये,न कि घर में बैठकर खाने के लिये मुफ्त में अनाज तथा रूपया दिया जाना चाहिये।मुझे लगता है कि इस तरह से निश्चित रूप से मजदूरों की कार्य क्षमता में लगातार ह्रास होगा और उसकी स्थिति"उस सर्कस में रखे शेर की तरह हो जायेगी,जिसे सर्कस के मालिक के द्वारा जंगल में छोड़ देने के बाद जंगल में शिकार करने वाले कुत्तों के द्वारा मार कर भक्षण कर लिया गया,क्योंकि कुत्तों को शिकार करने की आदत सी हो गई थी तथा शेर को बैठकर मुफ्त में खाने की आदत सी हो गई थी।
शहरों की ओर पलायन के कारण- वर्तमान समय में देखा जा रहा है कि गाँव से अधिकतर जनसंख्या सड़कों के किनारे की जमीन उँचे कीमत पर खरीदकर किसी भी प्रकार का व्यवसाय करने की बात सोचती है,जिसके लिये पक्के का मकान बनाने की जरूरत पड़ती है।पक्के के मकान बनाने के लिये नदियों से अवैध बालू के उठाव की जरूरत पड़ती है।
इसको रोकने के लिये समाधान के तौर पर देखा जाय तो हम कह सकते हैं कै यदि गाँव में लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं जैसे बिजली,अस्पताल,विद्यालय, बाजार तथा रोजगार के अवसर उपलब्ध करा दिया जाय तो स्वतः बालू की मांग घट जायेगी तथा शहरों की ओर पलायन कम होने लगेगा एवं अवैध बालू का उठाव भी कम हो जायेगा।
एक सुन्दर लेकिन सच्ची बात है कि"अपनों ने तो मुझे लूटा,गैरों में कहाँ दम था,मेरी कस्ती वहीं डूबी जहाँ पानी कम था"।आज आपके सामने जो जल संकट है,वह नदियों से लगातार अवैध बालू के उठाव के कारण है। तथा अन्य अनेकोंनेक वैसे शहर जो कि इन नदियों के तट पर बसे हुये हैं,जिसकी दुर्गति बहुत नजदीक है,क्योंकि पदाधिकारी को तो इन क्षेत्रों में घर बनाकर रहने की कोई जरूरत नहीं है,उनके कानों में अखबारों में छपी खबरों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।मुझे तो लगता है जहाँ तक झारखंड'खनिज कानून' की बात है तो जमीन के नीचे तीन फीट के अंदर से बालू,मिट्टी या अन्य किसी भी खनिज की खुदाई अवैध मानी जाती है,चाहे वह सरकारी जमीन हो या रैयती जमीन ही क्यों न हो"
अंत में बहुत हो गई बालू की बात तथा आने वाले समय का हाल वैसा ही होने वाला है,"जैसे माटी कहे कुम्हार से,तू काहे रौंधे मोय। एक दिन ऐसा आयेगा मैं रौंधूगा तोय"के साथ अपनी लेखनी को विराम देता हूँ"जय नदी,जय बालू, जय विकास।
आलेख साभार-श्री विमल कुमार "विनोद"
प्रभारी प्रधानाध्यापक राज्य संपोषित उच्च विद्यालय पंजवारा
बांका(बिहार)।
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