वंश वृद्धि के लिये समाज में वैवाहिक परंपरा होती है,जो कि सभी संप्रदायों की अपनी सांस्कृतिक,धार्मिक,परंपरा पर आधारित होती है।झारखंड तथा अन्य प्रदेशों में पायी जाने वाली संथाल समुदायों की भी अपनी वैवाहिक परंपरा है,जो कि उसकी जातिगत,धार्मिक,परंपरागत पहचान होती है।अपने इस आलेख में मैं संथाल जाति के वैवाहिक परंपरा की ओर लिये चलता हूँ।प्रस्तुति इस प्रकार है--
संथाल जाति की वैवाहिक परंपरा को तीन प्रकारों में बाँटा जा सकता है---(1)सामाजिक रीति-रिवाज तथा संस्कार द्वारा,(2)प्रेम-विवाह तथा(3)खींचकर।
सामाजिक रीति-रिवाज के द्वारा-
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इस प्रकार की वैवाहिक परंपरा में बरतुवार जिसको'रायबार हड़ाम' जो कि वर पक्ष द्वारा वधु खोजने के लिये जाते हैं।उसके बाद बरतुवार के द्वारा सुयोग्य लड़की को दिखाने के लिये लड़का को लड़की के गाँव ले जाया जाता है।जहाँ पर सबसे पहले लड़की के द्वारा लड़का पसंद किया जाना जरूरी होता है।लड़की के द्वारा लड़का पसंद होने के बाद रायबार हड़ाम के द्वारा"पौन"(लड़का पक्ष के द्वारा लड़की को दी जाने वाली राशि)तय की जाती है।पहले पौन की राशि-16 रूपये दी जाती थी अब उसको बढ़ा कर -500 रूपये कर दी गई है।
पौन की राशि को देने के लिये रायबार लड़का-लड़की पक्ष के दोनों ओर के 5-5 आदमी जो
(लड़का-लड़की)दोनों गाँव के होते हैं,के द्वारा दिया जाता है। इसके बाद विवाह की तिथि तय की जाती है,जिसे सपेद धागा जो कि पीला रंग से रंग दिया जाता है जिसमें तिथि के अनुसार गाँठ बाँध दिया जाता है,जिसे लड़का पक्ष वाला लड़की पक्ष के यहाँ भेजेता है। शादी की तिथि तय होने के पहले तिलक की रस्म पूरी की जाती है,जो कि सिर्फ लड़के का ही होता है। तिलक की रस्म के बाद धागे के गाँठ को घटते हुये क्रम में प्रतिदिन एक-एक करके खोला जाता है,जिससे विवाह की तिथि नजदीक आती जाती है तथा जब अंतिम होता है,उस दिन को शादी की तिथि मान ली जाती है।
संथाल जाति में वैवाहिक परंपरा जो कि आदिकाल से चली आ रही है,उसमें बाराती दिन के समय में ही लड़की वाले के गाँव के छोर में(गाँव के प्रवेश द्वार) के पास आते हैं,जहाँ दरामदा(स्वागत)किया जाता है। उसके बाद बारात को गाँव के बाहर गाछ के नीचे पुआल तथा दर्री बिछा कर रूकने दिया जाता है।इसके बाद लड़का पक्ष वाले अपने खाने की व्यवस्था स्वंय करते हैं। इसके बाद महिलाओं के द्वारा दूल्हा को"पटिया"में बैठाकर तेल लगाया जाता है तथा बारी-बारी से 'गुड़'खिलाया जाता है।फिर गाँव के अंदर लड़की(वधु )की बड़ी बहन दूल्हा को हाथ पकड़कर गाँव भ्रमण कराती है,जहाँ गाँव की महिलायें दूल्हा को गुड़ खिला कर उसका स्वागत करती है।उसके बाद बारात लोग ढोल,मांदर-भेड़,नेटुआ नाच के साथ गाँव में नाचते गाते प्रवेश करते हैं। इसके बाद जोग मांझी(मांझी का सहायक) बारात को गाँव में प्रवेश करने के लिये आमंत्रित करता है।गाँव में आने के बाद लड़की वाले परिवार की महिलायें लड़के को नहला कर तेल लगाती है। विवाह करने के लिये आते समय दूल्हा पक्ष की ओर से "दौड़ो डाली" सजाकर लड़की वाले के यहाँ लाया जाता है,जिसमें विवाह के समय में लड़की को घर से तैयार करके "दौड़ो डाली" में बिठाकर, वर पक्ष के लोग उठाकर दरवाजे में लाते हैं। इसी समय दूल्हा के द्वारा लड़की के छोटका भाई जिसे"इरूल कोड़ा"कहा जाता है साला दहरी (पगड़ी)पहनाया जाता है।जब शादी की रस्म लड़की वाले के दरवाजे पर चल रही होती है उस समय वर-वधु पक्ष के मांझी हड़ाम(ग्राम प्रधान) दूल्हा-दूल्हन पर जल का छींटा मारते हैं।
अंत में,लड़की पक्ष के दरवाजे पर उपस्थित सगे- संबंधियों तथा ग्रामीण के बीच दोनों पक्ष के मांझी हड़ाम के द्वारा सिन्दूर दान करवाया जाता है तथा विवाह की रस्म पूरी मानी जाती है।
इस प्रकार के विवाह के अलावे भी-खींचकर यानि हाट-मेला इत्यादि जगहों से परिवार वालों की सहमति के बिना भी लड़का, लड़की को खींचकर ले जाकर शादी कर लेता है,में भी गोत्र का पालन किया जाता है। इसके अलावे प्रेम विवाह भी होता है,जिसमें लड़का-लड़की आपस में प्रेम करके विवाह कर लेते हैं, जिसे संथाली समाज के द्वारा मान्यता प्राप्त है। संथाल जाति की शादी के संबंध के अध्ययन से पता चलता है कि-
(1) लड़की पक्ष के लोग बेटी की शादी के लिये वर खोजने नहीं जाते हैं,चाहे उनकी बेटी कुँवारी भी रह जाय,जिसके उदाहरण आज भी संथाल समाज में देखने को मिलती है।
(2)आज के समय में भी लड़का पक्ष के द्वारा लड़की पक्ष को"पौन की राशि"जो कि लड़का पक्ष के द्वारा दी जाती है कि प्रथा बनी हुई है।
(3) संथाल जाति की शादी में गोत्र का पूरा ख्याल रखा जाता है जैसे कि मरांडी की शादी मरांडी वाले के साथ नहीं होती है।इस बात का ख्याल खींचकर जिसमें लड़का-लड़की को मेला या हाट से ले जाने के पहले भी लड़का-लड़की से सबसे पहले गोत्र ही पूछता है।यदि एक ही गोत्र का मिल जाने पर यह विवाह नहीं होती है।
(4)संथाल जाति की शादी में बारात आने पर लड़के वाले की ओर से ही बारतियों के भोजन तथा खाने-खिलाने की व्यवस्था करनी पड़ती है।
(5)पौराणिक परंपरागत रस्म रिवाजों को आज तक व्यवहार में लाया जा रहा है,जो कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी प्रशंसनीय हैं।
इस प्रकार के कुछ रस्म जैसे- दूल्हा को लड़की वालों के घर पर महिलाओं के दवारा पटिया बिछाकर तेल,उटकन,काजल लगाना,शादी के गीत गाना,, लड़की के भाई को"साला धोती" देना इत्यादि परंपरा थी जो कि दुर्भाग्यवश आधुनिकता तथा पश्चिमीकरण के दौर में विलुप्त होती गई जिससे स्थानीय सभ्यता,संस्कृति,परंपरा का ह्रास होता हुआ नजर आता है,जिसे बचाने का प्रयास किया जाना चाहिये,जो कि हमारी सभयता संस्कृति की पहचान है।
आलेख साभार-श्री विमल कुमार "विनोद"
प्रभारी प्रधानाध्यापक राज्य संपोषित उच्च विद्यालय पंजवारा बांका(बिहार)।
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