Monday, 20 July 2020
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"हम" की भावना का अभाव-विजय सिंह "नीलकण्ठ"
"हम" की भावना का अभाव
हमारे देश के संविधान की शुरुआत इसकी प्रस्तावना से होती है जिसका पहला शब्द "हम" ही है। वैसे प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में वसुधैव कुटुम्बकम् को महत्व दिया गया और आज भी कुछ लोग इसे समझते हैं और ऐसी भावना भी रखते हैं। लेकिन अधिकांश लोग "हम" की भावना से मुक्त होकर "मैं" की भावना से ग्रसित दिख रहे हैं जो हर प्रकार के विकास का अवरोधक बन कर सामने आया है। देश के कण-कण में "मैं" का इतना प्रवेश हो चुका है कि पुनः "हम" की कल्पना करना बेईमानी लगती है। कुछ ऐसे लोगों या संस्था का जन्म हुआ या हो रहा है जो पुनः "हम" को लाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन यह संभव ही नहीं नमुमकिन है। "मैं" के अनेकों उदाहरण देखने को मिलते हैं। सभी का वर्णन करना असंभव है इसलिए जो सबका मूल है उसी का संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत करने की कोशिश की जा रही है।
यहाँ "मैं" शब्द को शिक्षा के क्षेत्र से जोड़ कर दिखाया जा रहा है जिसके मूल में "शिक्षक" और "शिक्षार्थी" आते हैं। वर्तमान समय में प्रायः यह देखने को मिलता है कि जिनके ऊपर शिक्षक शब्द की मुहर लग जाती है वह अपने-आप को परिपूर्ण समझने लगते हैं, जबकि हकीकत कुछ और ही है। शिक्षकगण किसी बात की अधूरी जानकारी होने की बात को स्वीकार करने को तैयार नहीं होते। सभी अपने-अपने विषय में पारंगत हैं ऐसा दिखाने की कोशिश में लगे रहते हैं क्योंकि जिन बच्चों को ये ज्ञान बाँटते हैं उन्हें तो किसी विषय की भरपूर जानकारी होती नहीं। वे तो समझते हैं कि हमारे गुरुजी जो बता रहे हैं वही सत्य है क्योंकि गुरु जी से अधिक जानकारी तो किसी के पास होती ही नहीं। इसी कारण गुरुजी के अंदर अपने अधूरे ज्ञान का इतना घमंड हो जाता है कि वे बाँकी किसी की बातों को सही मानने को तैयार ही नहीं होते। उनके मन मस्तिष्क पर "मैं" का ऐसा परत चढ़ जाता है कि थोड़े से ज्ञान में उलझ कर रह जाते हैं एवं "हम" नहीं बन पाते। जबकि हकीकत यह है कि कोई भी गुरुजी यदि अपने-आप को महाज्ञानी समझते हैं तो यह केवल दंभ मात्र हीं है क्योंकि बिना पुस्तक पढ़े, बिना दूसरों की ज्ञानवर्धक बातों को आत्मसात किए, बिना अपने घमंड का त्याग किए किसी भी विषय की भरपूर जानकारी संभव हो ही नहीं सकती।
ज्ञान में वृद्धि तभी संभव है जब हम कमियों का उजागर होने पर उसे दूर करने की कोशिश करें न कि तर्क-वितर्क के द्वारा एक-दूसरे से श्रेष्ठ साबित बनने की कोशिश। ऐसा होने से सबों के बहुमूल्य समय की बर्बादी होती है एवं किसी विषय की जानकारी अनेकों रूपों में प्राप्त नहीं हो पाती। मात्र थोड़े से ज्ञान में उमड़-घुमड़ कर रह जाते हैं और समय का सदुपयोग ज्ञान प्राप्त करने में नहीं अपितु बहस करने में बर्बाद कर देते हैं। यदि यह भावना जग जाए कि सामने वाले जो कह रहे हैं या प्रस्तुत कर रहे हैं शायद वह भी ग्राह्य योग्य है तब फिर क्या कहने। ऐसा होने पर एक ही विषय का ज्ञान कई रूपों में प्राप्त हो जाता है और तब खास विषय में माहिर बनने से कोई रोक नहीं सकता है। गुरुजनों में भी कुछ ऐसे मिल ही जाते हैं जो "हम" की भावना के साथ अपना जीवन बिताते हैं जो महान हीं नहीं महानतम की संज्ञा से नवाजे जाते हैं।
अंत में सभी गुरुजनों से स्वयं के अंदर से "मैं" की भावना को निकालकर "हम" के पथ पर चलने की आशा की जाती है जिससे बच्चों के अंदर भी "हम" की भावना उत्पन्न होगी और संविधान के पहले शब्द की सार्थकता सिद्ध हो जाएगी एवं बेकार के तर्क-वितर्क पर बहुमूल्य समय की बर्बादी भी रुक जाएगी।
विजय सिंह "नीलकण्ठ"
सदस्य टीओबी टीम
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बहुत सुंदर सर
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा आपने
हम अपनी कमजोरी को देखना भी नहीं चाहते
Superb👏👏🙏🙏
बहुत-बहुत धन्यवाद
Deleteहां, आपने सही कहा । हम अपनी कमजोरियों पर ध्यान देना नहीं चाहते । सीखने में ये सबसे बड़ा बाधा है ।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद!
Deleteआपने बिल्कुल सही फरमाया सर ।जब तक मैं की भावना से हम मुक्त नही होते तब तक हमारी कमियां दूर नही हो सकती ।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद!
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