Saturday, 13 March 2021
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शिक्षण बस इतना समझ लीजिए-मो. जाहिद हुसैन
शिक्षण बस इतना समझ लीजिए
शिक्षण एक अद्भुत कला है, साथ ही साथ विज्ञान भी है। विद्वता का प्रदर्शन और वाक्यकला में प्रवीणता (Elocution) उत्कृष्ट शिक्षण की गारंटी नहीं है। उनका प्रदर्शन अधिगम के लिए असरदार होना महत्वपूर्ण है। अक्सर देखा गया है कि शिक्षक विषय में पारंगत तो हैं लेकिन सिखाने में फिसड्डी हैं। कोई शिक्षक विषय विशेषज्ञ भले ही न हों लेकिन उनमें बच्चों को अधिगम प्रतिफल तक पहुंचाने का गुर हो तो समझा जाना चाहिए कि वह विषय विशेषज्ञ शिक्षक से बेहतर हैं।
विद्वानों का व्याख्यान समझने के लिए स्तरीय श्रोता का होना जरूरी है। सेमिनार हो या कवि सम्मेलन, अक्सर लोक भाषा में कहने वाले विद्वान या कवि/कवयित्री महफिल लूट लेते हैं। कारण क्या है ? कारण है: सुनाने वाले की बेजोड़ अदायगी और सुनने वाले का ज्ञान स्तर। नदी में डुबकी लगाने वाले दरिया के साहिल पर भी जाने में डरते हैं। ज्ञान सागर के लहरों के बाजीगर नदियों में डुबकी लगाने वाले के स्तर को तुच्छ समझते हैं और यहीं से उनकी गलती शुरू हो जाती है। वास्तव में वह शिक्षक विद्वता के प्रमाण पत्र का हकदार है जो बच्चों के मनोविज्ञान, समाजमिति एवं ऊर्जा को आंककर आनंददायी अधिगम कराने का कलाकार हो। बच्चे की काया वर्ग-कक्ष में तो हो लेकिन उनके मन-मस्तिष्क कहीं और हो। पहले तो उन चेहरों की पहचान कर बाजारों और मैदानों से वर्ग-कक्ष में लाना होगा। सावधिक बिंब का प्रतिबिंब उनकी स्वप्निल आंखों में हो। प्रत्येक विद्यालय की अपनी समाजमिति (Sociometry) होती है। प्रत्येक बच्चे को सिखाने का कोई निश्चित पैमाना नहीं होता है। हां, शिक्षक के पास ऐसा थर्मामीटर जरूर हो जिससे प्रत्येक बच्चे के ताप को माप सकें और उनका उपचार कर सामान्य कर दें। शिक्षकों को गायक, नर्तक, हास्यकार, वकील, जज एवं अभिभावक, सब बनना पड़ता है। सीखने-सिखाने के लिए चाहे जो भी बनना पड़े या करना पड़े, वैसा करना पड़ेगा या बनना पड़ेगा। याद रहे कि शिक्षक ज्ञानदाता न बनें बल्कि सुगमकर्ता की भूमिका में रहें।
शिक्षक कहलाना अलग बात है और शिक्षक होना अलग बात है। यूं तो शिक्षक कहलाना भी बड़ी बात है और शिक्षक होना तो और भी बड़ी बात है। शिक्षकों में वाकपटुता, मृदुभाषिता, स्पष्ट संवाद, स्पष्ट लेखन और स्वच्छ कार्य-संस्कृति का होना जरूरी है। मित्रवत व्यवहार बच्चों में तरंग-उमंग भरता है। उनके व्यक्तित्व एवं कार्यशैली अधिगम में जीवंतता लाती हैं। शिक्षक यदि 'चेतक' पढ़ा रहे हों तो बच्चों में 'महाराणा प्रताप' बनने का एहसास हो जाए। बच्चे सपनों के घोड़े पर सवार हों, हवा से बातें कर रहे हों और वीर रस में सराबोर हों। यह कला यूं ही नहीं आती बल्कि इसके लिए सकारात्मक ऊर्जा एवं अनवरत परिश्रम की जरूरत होती है और उन्हें स्वयं जीवंत बनना पड़ता है, तभी कोई शिक्षक बच्चों में उत्साह भर सकता है। आनंददायी शिक्षण के लिए गतिविधि आधारित (मानसिक तथा शारीरिक) शिक्षण की आवश्यकता है। बीच-बीच में हास्य-व्यंग का पुट बच्चों को तरोताजा रखने और उनके अंदर से भय निकालने में सहायक है। इसका बेहतर तरीका है- हास्य व्यंग, प्रेरक प्रसंग, प्रेरक कहानी, प्रसांगिक कविता-कहानी, महान विभूतियों का इतिहास, वीर वीरांगनाओं की गाथा, अभिनय एवं मूक प्रदर्शन, तान- अनुतान, अभिव्यक्ति के प्रभाववाली लहजे, सकारात्मक शोर करने की आजादी देना; यथा-प्रश्न का उत्तर देना, एक साथ प्रश्न करना, एक साथ उत्तर देना और शिक्षक की अभिव्यक्ति से स्वाभाविक हंसी के फव्वारे छूटना, मुस्कुराना, खुशनुमा माहौल का भरपूर आनंद लेना तथा बच्चों से मित्रवत व्यवहार के कारण अंतः क्रिया का होना आदि। बच्चों को मौन व्रत रखने पर मजबूर करना शिक्षक की अक्षमता का परिचायक है। वह पिन ड्रॉप साइलेंस सकारात्मक है जिसके दौरान बच्चों में मानसिक हलचल हो और बच्चों में सीखने की प्रक्रिया अपने-आप तेज हो जाय। बच्चे यदि शिक्षण के दौरान नकारात्मक गप्पें-शप्पें करते हैं, मतलब कि शिक्षक की तकनीक उन पर प्रभाव नहीं डाल रही है।
अच्छे शिक्षक के छत्रछाया में बच्चे सुरक्षित महसूस करते हैं। वे अपने अभिभावक या माता-पिता के बाद अपने शिक्षक के निकट सुरक्षित महसूस करते हैं और उन्हें इस बात का ढारस होता है कि चलो- 'गुरुः ब्रह्मा गुरुः विष्णु गुरुः देवो महेश्वरः तो है। शिक्षक का जुनून शिक्षार्थी में सकारात्मकता भर देता है। शिक्षण एक साधना है। शिक्षक साधक है और बच्चों के व्यवहार में सकारात्मक परिवर्तन लाना साध्य है। बच्चों के रग-रग में मानव मूल्यों का प्रवाह जीवन में अबाधित गति प्रदान करता है।
ज्ञान एवं कौशल के साथ-साथ निर्मल हृदय जीवन में सफलता की गारंटी है। बेहतर शिक्षक ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं कार्यात्मक, तीनों पक्षों को उजागर करने की कोशिश करते हैं। ज्ञानात्मक पक्ष की दृढ़ता जिंदगी में चार चांद लगा देती है। हृदय परिवर्तन आदमीनुमा जानवर को भी जानवरनुमा आदमी बना देता है। अंतरात्मा जागृत होती है और उसकी जीत होती है जो व्यक्ति के मस्तिष्क में चल रहे छः-पांच को भीष्म प्रतिज्ञा में बदल देती है और वह कभी गलत नहीं सोचता और न गलत करता है। ऐसा ही शिक्षक दमदार शिक्षक होता है।
'तमसो मा ज्योतिर्गमय' अंधकार से प्रकाश में ले जाने वाला, अब तो कोई गुरु है नहीं। आदर्शवादी बातें हैं, शायद सिर्फ किताबों में। हां, कोई परिश्रम से शिक्षक बन सकता है, जिसका अंग्रेजी शब्दार्थ 'टीचर' होता है; हालांकि टीचर 'शिक्षक' का पर्याय नहीं है। शिक्षक और टीचर में अंतर ठीक वैसा ही, जैसा कि दर्शन और फिलोसफी में। भारतीय सद्विचार को विलायती कसौटी पर परखा नहीं जा सकता।
अध्ययन-अध्यापन तथा विभिन्न विधियों एवं प्रविधियों का उपयोग शिक्षक को इस तरह कार्य कुशल बना देते हैं कि वे अपने कठिन परिश्रम से नवीन युक्तियों की खोज करते हैं जिसका उपयोग वे दिन-प्रतिदिन प्रभावी शिक्षण-अधिगम के लिए करते हैं।
सामसयिक घटनाओं से परिचित होना और शिक्षार्थियों को परिचित कराना शिक्षकों का कर्तव्य है। केवल पाठ्यपुस्तक अटल सत्य नहीं है, इससे इतर बहुत-सी ज्ञान सरिता हैं जिसमें तैरना बच्चों को सिखाना होगा। सामाजिक घटनाओं को पाठ्यक्रम से जोड़कर बच्चों को शिक्षा देना व्यवहारिक है, ख़ासकर समाज विज्ञान में। कुशल शिक्षक व्याख्यान कम देते हैं। करके सीखने-सिखाने पर ज्यादा जोर देते हैं। बाल केंद्रित शिक्षण बच्चों के प्रतिभा को निखारने में मदद करता है। परियोजना कार्य में बच्चे स्वयं खोजबीन करते हैं जिसमें शिक्षक सुगमकर्ता की भूमिका में होते हैं। कुशल शिक्षक प्रजातांत्रिक विधि का इस्तेमाल सामाजिक विज्ञान में अधिक करते हैं जिसमें बच्चे को अभिव्यक्ति की पूरी आजादी होती है। सेमिनार, वाद-विवाद, भाषण प्रतियोगिता, विचार-विमर्श आदि से बच्चे काफी सीखते हैं। ज्ञान, कर्म एवं पूर्वाभ्यास उनमें उत्साह भर देते हैं। वर्ग कक्ष में सभी को बोलने और सुनने का अवसर प्रदान करना चाहिए तभी कुछ निकल कर सामने आएगा जो ज्ञान का सृजन करेगा। उदाहरण स्वरुप -"नारी की स्थिति" पर यदि बच्चों को बोलने की स्वतंत्रता बारी-बारी से दी जाएं तो कोई बच्चा कहेगा "नारी की स्थिति अच्छी है।" तो कोई कहेगा "प्राचीन काल में नारी की स्थिति अच्छी नहीं थी।" "दहेज प्रथा एक अभिशाप है।" "महिलाएं आज पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं।" "महिलाएं आज हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं।" यह लोकतांत्रिक विधि बच्चों में अभिव्यक्ति की दक्षता प्रदान करती है।
शिक्षकों को मिनटों में समझा देने की क्षमता हो। यदि शिक्षक के पास 10 मिनट हैं तो 5 मिनट में एक ही अवधारणा स्पष्ट क्यों न करें लेकिन 5 मिनट बच्चों के लिए छोड़ दें। हो
सके तो वर्ग में शिक्षक घूम-घूमकर वाॅच करें। उस बीच सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन कर लें। यदि 45 मिनट की घंटी हो तो 20 मिनट अवधारणा पर काम करें। 5 मिनट प्रश्नों को समझाने और 20 मिनट क्लास वर्क दें तथा फिर मूल्यांकन करें एवं परिमार्जन भी करें। वर्ग-कक्ष में ही व्यक्तिगत तौर पर कॉपी में या सामूहिक रुप से श्यामपट्ट पर समस्या का समाधान करें। गृह कार्य बहुत ही कम दें। कारण कि बच्चे वर्ग में यदि अभ्यास कर लेते हैं तो अच्छा है और गृह कार्य को भी चुटकियों में सॉल्व कर लेते हैं। यदि वर्ग कार्य नहीं करवाएंगे तो विषय बोझिल हो जाएगा और गृह कार्य बनाकर नहीं ला सकेगें। ऐसे भी ग्रामीण परिवेश में अधिकतर अभिभावक अशिक्षित या कम जानकार होते हैं, जो बच्चों को दिए गृह कार्य में मदद नहीं कर सकते।
वर्ग-कक्ष में जितना भी पढ़ाया जाए उतने में से ही प्रश्न हल करने के लिए जरूर दें और सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन भी करें। उस अवधारणा या पाठ्यवस्तु से प्रश्नों को बनवाना आवश्यक है, खासकर गणित एवं विज्ञान की अवधारणा सर्पिल गति (Spiral Way) से चलती है। इसलिए बच्चे को तत्काल दी जाने वाली अवधारणा से जुड़ी अवधारणा पक्की हो, नहीं तो आगे बढ़ने की श्रृंखला (Chain) टूट जायेगें। अतः पुनरावृत्ति जरूरी है।
भाषा या सामाजिक विज्ञान शिक्षण के दौरान शिक्षक अपने अनुभव से बच्चे के पूर्व ज्ञान से पाठ को जोड़कर ही रसास्वादन करा सकते हैं। भाषा शिक्षण में यदि रस एवं सौंदर्य बोध न हो तो समझिए कि शिक्षण कला अधूरी है। शीर्षक से जुड़े दूसरे किस्से-कहानियां, चुटकुले, प्रसंग, दोहे, हास्य-व्यंग एवं छंद आदि शिक्षकों को जानना चाहिए ताकि वे शिक्षण-अधिगम में रस घोल सकें।
वर्ग कक्ष में बच्चे दो तरह के शोर करते हैं- नकारात्मक शोर और सकारात्मक शोर। नकारात्मक शोर शिक्षण अधिगम में बाधक है, जिसे सकारात्मक शोर से दबाया जा सकता है। इसके लिए कोई दिलचस्प गतिविधियां करानी होगी जिसमें सभी बच्चे भाग ले सकें और फिर सीखने के होड़ में शोर करें। वर्ग कक्ष में यदि पिन ड्रॉप साइलेंस हो तो कोई जरूरी नहीं कि बच्चे सीख रहे हों। वे शिक्षक के कड़क व्यवहार के कारण भी चुप-चुप हो सकते हैं। सकारात्मक शोर, जैसे- बच्चे एक ही बार में सभी उत्तर दे देते हैं। प्रश्नों की बौछार करने लगते हैं। सीखने की प्रक्रिया तेज होती है। आनंददायी वातावरण में मानसिक कशमकश और कौतूहल अच्छी बात है। बच्चे आत्मविश्वास से भरे होते हैं और इस तरह वे बेझिझक शिक्षक से प्रश्न पूछते हैं। शिक्षक उन्हें भले ही संतुष्ट न कर पाए, लेकिन उनके मन में उठे सवाल को हल करने के लिए ऐसा मंत्र दे दें ताकि उनकी प्यास बढ़ जाए और वे स्वयं हाल तक पहुंच जाएं। ज्ञान-पिपासा बुझनी नहीं चाहिए, नहीं तो मानसिक विकास रुक-सी जाएगी। शिक्षक मां या बाप तो नहीं बन सकते लेकिन व्यवहार तो मां या बाप की तरह कर ही सकते हैं। छोटे बच्चों को पढ़ाने के लिए अक्सर महिला शिक्षिका को ही रखा जाता है, इसके पीछे यही कारण है कि वे बच्चों से मां की तरह व्यवहार करें। उन्हें प्यार करें। प्यार-प्यार में शिक्षा देने का कार्य करें। एक नारी में वात्सल्य अपने बच्चे के प्रति तो स्वाभाविक है लेकिन वह दूसरे बच्चों से भी अच्छा व्यवहार करती है।
बच्चों के सामने आदर्शवादी विचारधारा न बांचें, बल्कि उन्हें बिना कहे संस्कार व उच्च विचार से जोड़ें। बच्चे मूर्त रूप में जो देखते हैं, समझते हैं। हां, शिक्षक ऐसा जरूर करें कि बच्चे आदर्शवादी विचार को अपनायें। इसके लिए महान लोगों के जीवनी एवं कार्यों से अवगत कराएं और सबसे बड़ी बात है कि शिक्षक का व्यवहार अच्छा हो क्योंकि बच्चों के लिए शिक्षक एक रोल मॉडल (Role Model) है। शिक्षक सिर्फ विद्यालय परिसर या वर्ग कक्षा में ही शिक्षक नहीं होते बल्कि समाज में भी वे शिक्षक ही होते हैं। शिक्षकों के सद्व्यवहार एवं स्वच्छ विचार औरों से उन्हें अलग करता है। बच्चों के शरीर एवं मन-मस्तिष्क में जान फूंकने तथा होंठों पर मुस्कान लाने के लिए शिक्षक को निपुण एवं ऊर्जावान होना जरूरी है।
शिक्षक की पहचान सकारात्मक हो। सिर्फ हम ही बच्चों का मूल्यांकन नहीं करते हैं। बच्चे भी शिक्षकों का मूल्यांकन बखूबी करते हैं। अपने सहपाठियों के बीच शिक्षक के गतिविधियों के अनुसार नाम बूनते हैं- हीरो हौंडा सर, अंग्रेजी सर, कड़क सर, पिटम्मस सर, मोटू सर, पतलू सर, नरम सर और गरम सर आदि।
एक होम्योपैथ डॉक्टर साहब अपने कॉलेज लाइफ का अनुभव सुना रहे थे कि जो साथी क्रेजी होता था, उसे- हाउस (Hyos), जो नाकाम आशिक होता था, उसे- इग्नेशिया (Ignetia), जो लड़की पतली होती थी, उसे- सीपिया (Sepia) तथा जो मोटी होती थी, उसे- पलसा (Pulsa), जो क्लास में उंघता रहता था, उसे- जेल्सिमियम कहते थे। यह सिर्फ यूं ही नाम बूनना नहीं है बल्कि उनके गुणों, लक्षणों एवं व्यवहारों के अनुसार सटीक नामाकरण है। उसी तरह बायोलॉजी पढ़ने वाले छात्र अपने साथियों को मायमोसा प्युडिका (छुईमुई ) या बटरफ्लाई कहते है। मूल्यांकन हर कोई तो एक दूसरे का करते ही हैं। शिक्षकों को नित्य बच्चों का मूल्यांकन करते रहना चाहिए। "लिफाफा देखकर मज़मून भांपने लेने का इल्म शिक्षकों में तो होना ही चाहिए ताकि हर पल बाल-रूपी लिफाफे को भांपते रहें और उन्हें मार्गदर्शन एवं परामर्श देते रहें। बच्चे क्या? हर कोई के चेहरे, आंखें, एवं क्रियाशीलता दर्पण है। सफल शिक्षकों की अंतर्दृष्टि पीछे ही नहीं बल्कि आठों दिशा में देख लेती हैं।
शिक्षण में अनेक शोध कार्य हो रहे हैं। शोधार्थी नयी दृष्टि दे रहे हैं। शिक्षण अधिगम की दशा-दिशा बदल रही है। नवाचार प्रभावी शिक्षण में एक ऐसी पद्धति गढ़ती है जिसे हमेशा एक प्रणाली तथा सूत्र के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। बाल विज्ञान के बिना शिक्षण कार्य निर्मूल है। यही कारण है कि शिक्षकों को समाजशास्त्रीय एवं दार्शनिक आधार के साथ-साथ मनोवैज्ञानिक आधार की शिक्षा दी जाती है। कोई भी शोध या अनुसंधान में नमूने, आंकड़े संग्रह सारणीयन, सांख्यिकी एवं विश्लेषण-संश्लेषण की आवश्यकता पड़ती है। शोध में गणित की आवश्यकता पड़ती ही है। जान लें कि गणित विज्ञान की रानी है और बिना रानी के राजा कहां? जब भी राजा की बात होती है तो रानी की भी बात होती है।
"एक था राजा एक थी रानी,
दोनों मर गए खतम कहानी।"
गणित अपने आप कला तो है लेकिन विज्ञान में इसका इस्तेमाल और शुद्धता एवं सटीकता इसे विज्ञान बना देता है। विज्ञान का सिस्टम गणित के मेथड या फार्मूला पर निर्भर होता है। ठीक इसी तरह शिक्षण एक कला के साथ-साथ विज्ञान भी है।
मो. जाहिद हुसैन
उत्क्रमित मध्य विद्यालय मलह बिगहा चंडी, नालंदा
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